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________________ ६२४ = कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३३) ५९७४.लाउयपमाणदंडे, पडिलेहणिया उ अग्गए बद्धा। सा केसरिया भन्नइ, सनालए पायपेहट्ठा। अलाबु जितना ऊंचा हो उतने प्रमाण का दंड बनाकर उसके अग्रभाग में बद्ध प्रत्युपेक्षणिका होती है, उसे सवृन्ती पादकेसरिका कहते हैं। वह कारणवश गृहीत सनाल पात्र के प्रत्युपेक्षण के लिए होती है। आर्यिकाएं उसे लेती हैं तो चतुर्गुरु और वही प्रतिसेवना आदि विराधना। उत्सर्गतः निर्ग्रन्थों को भी नहीं कल्पता। बृहत्कल्पभाष्यम् का अधिकार समाप्त हुआ। उसी व्रत के पालन के लिए दोनों पक्षों-संयत-संयती विषयक मोक सूत्र का प्रारंभ होता है। ५९७७.मोएण अण्णमण्णस्स आयमणे चउगुरुं च आणाई। मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा भावसंबंधो॥ अन्योन्य अर्थात् एक दूसरे का-संयत संयती का और संयती संयत का मोक-प्रस्रवण को निशाकल्प मानकर रात्री में आचमन करते हैं तो चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष, मिथ्यात्व, उड्डाह, संयमविराधना और आत्मविराधना तथा भावसंबंध भी हो जाता है। ५९७८.दिवसं पिता ण कप्पइ, किमु णिसि मोएण अण्णमण्णस्स। इत्थंगते किमण्णं, ण करेज्ज अकिच्चपडिसेवं॥ दिन में भी उसका आचमन नहीं कल्पता, तो फिर रात्री में तो बात ही क्या? रात्री में यदि एक दूसरे के प्रस्रवण का आचमन किया जाता है तो फिर ऐसा कौनसा दूसरा अकृत्य है जिसका प्रतिसेवन न किया जाए? ५९७९.वुत्तुं पिता गरहितं, किं पुण घेत्तुं जे कर बिलाओ वा। घासपइट्ठो गोणो, दुरक्खओ सस्सअब्भासे॥ मोक के आचमन का कथन करना भी गर्हित है तो फिर आर्या के हाथ से या बिल-योनि से मोक का ग्रहण कैसेगर्हित नहीं होगा? घास चरने के लिए प्रविष्ट बैल जो धान्य के निकट चर रहा है, उसको धान्य खाने से रोकना कष्टप्रद होता है। इसी प्रकार यह मुनि भी संयती के मोक का आचमन करता हुआ प्रसंगवश अन्यान्य क्रियाएं भी कर नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३४) कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३५) ५९७५.ते चेव दारुदंडे, पाउंछणगम्मि जे सनालम्मि। दुण्ह वि कारणगहणे, चप्पडए दंडए कुज्जा॥ जो सनालपात्र के विषय में दोष कहे गए हैं, वे ही दोष दारुदंडक, पादपोंछनक के विषय में हैं। दोनों अर्थात् सनालपात्र और दारुदंडक कारणवश आर्याएं ग्रहण कर सकती हैं। ग्रहण करने पर चतुष्पल दंडक (?) करे। पासवण-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तए वा आयमित्तए वा, नण्णत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं॥ (सूत्र ३६) ५९८०.दिवसओ सपक्खे लहुगा, अद्धाणाऽऽगाढ गच्छ जयणाए। रतिं च दोहिं लहुगा, बिइयं आगाढ जयणाए। दिन में सपक्ष में भी संयत संयत का और संयती संयती का यदि मोकाचमन करती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। द्वितीयपद में अध्वा में वर्तमान गच्छ का तथा आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक दिन में स्वपक्ष के मोक का आचमन करे और रात्री में यदि निष्कारण मोक का आचमन करते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वे भी तप और काल से लघु होते हैं। द्वितीयपद में कारण में यतनापूर्वक रात्री में भी मोक का आचमन किया जा सकता है। ५९८१.अविसरक्खा वि जिया, लोए णत्थेरिसऽन्नधम्मेस। सरिसेण सरिससोही, कीरइ कत्थाइ सोहेज्जा॥ ५९७६.बंभवयपालणट्ठा, गतोऽहिगारो तु एगपक्खम्मि। तस्सेव पालणट्ठा, मोयाऽऽरंभो दुपक्खे वी॥ ब्रह्मव्रत पालन करने के लिए संयती लक्षण वाले एकपक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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