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पांचवां उद्देशक
= ६२३ ५९६८.फल्लो अचित्तो, अह आविओ वा,
लाकर दे। साध्वियों के दंड-पादपोंछन से उसे आच्छादित चउरंगुलं वित्थडो असंधिमो अ। कर दे या मिट्टी से उसे ढंक दे। विस्सामहेउं तु सरीरगस्सा,
५९७१.समणाण उ ते दोसा, न होति तेण तु दुवे अणुण्णाया। दोसा अवटुंभगया ण एवं॥ पीढं आसणहेउं, फलगं पुण होइ सेज्जट्ठा। वह पर्यस्तिकापट्ट सौत्रिक, अकर्बुर, अथवा आविक-भेड़ श्रमणों के वे दोष नहीं होते इसलिए दोनों-पीढ और की ऊन से बना हो। वह चार अंगुल विस्तृत, संधिरहित हो। फलक अनुज्ञात हैं। पीढ बैठने के लिए तथा फलक शय्या के ऐसा पर्यस्तिकापट्ट शरीर के विश्राम के लिए ग्रहण किया लिए, सोने के लिए। जाता है। जो अवष्टंभगत दोष हैं वे आकुंचनपट्ट पहनने पर ५९७२.कुच्छण आय दयट्ठा, उज्झायगमरिस-वायरक्खट्ठा। नहीं होते।
पाणा सीतल दीहा, रक्खट्ठा होइ फलगं तु॥
आर्द्र भूमी में स्थापित निषद्या कुथित हो जाती है। नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि भोजन जीर्ण नहीं होता, अतः आत्मविराधना होती है। आसणंसि आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥
दया के निमित्त वर्षा में भूमी पर नहीं बैठना चाहिए।
'उज्झायग'-भूमी की आर्द्रता के कारण उपधि (सूत्र २६)
जुगुप्सनीय हो जाती है। अर्श क्षुब्ध हो जाते हैं। कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि वायु अत्यधिक कुपित हो जाती है। अतः इनकी रक्षा के आसणंसि आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥
लिए पीढ-फलक पर बैठना चाहिए। शीतल भूमी में (सूत्र २७)
अनेक प्रकार के प्राणी सम्मूर्छित होते हैं। सर्प आदि डस
सकते हैं। अतः इन सबकी रक्षा के लिए फलक ग्रहण नो कप्पइ निग्गंथीणं सविसाणंसि
किया जाता है। पीढंसि वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥
नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटयं लाउयं (सूत्र २८) धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥
(सूत्र ३०) कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि
कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटयं लाउयं वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए
धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ वा॥
(सूत्र ३१) (सूत्र २९)
५९७३.ते चेव सवेंटम्मि, दोसा पादम्मि जे तु सविसाणे। ५९६९.सविसाणे उड्डाहो, पाकम्मादी य तो पडिक्कुटुं।
अइरेग अपडिलेहा, बिइय गिलाणोसहठ्ठवणा॥ थेरीए वासासु, कप्पइ छिण्णे विसाणम्मि॥
साध्वी को वृन्त सहित अलाबुपात्र रखना अनुज्ञात नहीं जैसे कपाट के दोनों ओर श्रृंग होते हैं वैसे ही श्रृंग वाले है। उसमें पादकर्म आदि वे ही दोष हैं जो सविषाण वाले पीढ-फलक पर बैठने से आर्यिकाओं का उड्डाह होता है, आसन में हैं। इसमें अतिरिक्त पात्र रखने का दोष, अप्रत्युपेक्षा पादकर्म आदि दोष होते हैं अतः उस पर बैठने पर प्रतिषेध होती है। द्वितीय पद में ग्लान योग्य औषधि रखने के लिए है। द्वितीयपद में वर्षाऋतु में विषाणों को छिन्न कर स्थविरा साध्वी को उस पर बैठना कल्पता है। ५९७०.जं तु न लब्भइ छेत्तुं, तं थेरीणं दलंति सविसाणं। __नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटियं छायंति य से दंडं, पाउंछण मट्टियाए वा॥
पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ पीढ-फलक विषाण का छेदन करने की अनुमति से प्रास न हो सके तो मुनि स्थविरा साध्वी को सविषाण पीढ-फलक
(सूत्र ३२)
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