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पांचवां उद्देशक:
जब शैक्ष ऐसा आचरण देखता है तो उसके मन में अन्यथा भाव आ जायेगा परतीर्थिक उड्डाह करने लग जाते हैं- 'अहो ! इन श्रमणों ने तो अस्थिसरजस्क साधुओं को भी जीत लिया है, उनसे भी आगे बढ़ गए हैं। लोक में अन्य धर्मों में ऐसी शोधि नहीं है । सदृश से सदृश की शोधि ये श्रमण करते हैं तो क्या कहीं शोधि की जा सकती है ? अशुचि से अशुचि का शोधन नहीं हो सकता।' ५९८२. निच्छुभई सत्थाओ, भत्तं वारेह तक्करदुर्ग वा ।
फासुदवं च न लब्भइ, सा वि य उच्चिविज्जा उ॥ यदि सार्थवाह प्रत्यनीक हो तो वह सार्थ से निष्काशित कर देता है । भक्तपान का वर्जन कर देता है। दोनों प्रकार के तस्कर - उपधिस्तेन और शरीरस्तेन - उपद्रुत करते हैं। कोई साधु अभी शौच से निवृत्त हुआ है, प्रासुक द्रव न मिलने पर मोक से आचमन लेकर उच्छिष्ट विद्या का जाप करे । वह आभिचारुका विद्या उस सार्थवाह को अनुकूल कर सकती है।
५९८३. अच्चुक्कडे व दुक्खे, अप्पा वा वेदणा खवे आऊं । तत्थ वि स च्चेव ममो, उच्चिनुगमंत विज्जाऽऽसु ॥ किसी मुनि के अति उत्कट दुःख उत्पन्न हो गया, सर्प आदि के इसने से अल्पवेदना है परन्तु वह आयु का क्षय कर सकती है। वहां भी यही विकल्प है। प्राशुक द्रव न मिलने पर मोक से आचमन करे वहां भी उच्छिष्ट मंत्र या विद्या का जाप कर साधु को वेदनामुक्त करे। ५९८४. मत्तग मोयाऽऽयमणं,
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अभिगए आइण्ण एस निसिकप्पो ।
संफासुडाहावी,
अमोयमत्ते भवे दोसा ॥ मात्रक में मोक लेकर आचमन करे यह निशाकल्प गीतार्थ के द्वारा आचीर्ण है। मोकमात्रक न होने पर स्वपक्ष सागारिक से मोक लेते हैं तो संस्पर्श-उड्डाह आदि दोष होते हैं। इस प्रकार रात्री में मोक से आचमन ले, उसके लिए द्रव न रखे। अपवादपद में द्रव रखा जा सकता है। ५९८५. पिट्ट को विय सेहो जह सरई मा व हुज्ज से सन्ना ।
जयणाए ठवेंति दवं, दोसा य भवे निरोहम्मि || यदि किसी शैक्ष के "पि सरई' अत्यधिक मल व्युत्सर्ग हो रहा हो, रात्री में अकस्मात् व्युत्सर्ग-संज्ञा न हो, इसलिए यतनापूर्वक द्रव रखे। मलनिरोध करने से अनेक दोष होते हैं। ५९८६. मोयं तु अन्नमन्नस्स, आयमणे चउगुरुं च आणाई । मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा देविदिट्टंतो ॥
१. कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १३७ ।
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परस्पर एक-दूसरे का मोक पीने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। मिथ्यात्व, उड्डाह और विराधना होती है। यहां देवी का दृष्टांत है। ५९८७. दी ओसहभावित, मोयं देवीय पज्जिओ राया।
आसाय पुच्छ कहणं, पडिसेवा मुच्छिओ गलितं ॥ ५९८८. अह रन्ना तूरंते, सुक्खग्गहणं तु पुच्छणा विज्जे ।
जइ सुक्खमत्थि जीवइ, खीरेण य पज्जिओ न मओ ॥ एक राजा को विषधर ने काट डाला वैद्य ने रानी का औषधभावित मोक राजा को पिलाया। आस्वाद को जानकर राजा ने उसके विषय में पूछा। मूर्च्छित अवस्था में वह दिनरात देवी से प्रतिसेवना करने लगा। प्रभूत शुक्र निकल गया । राजा मृत्यु के निकट पहुंच गया। वैद्य से पूछा । वैद्य ने कहायदि शुक्र है तो जी सकता है। दूध के साथ उसका शुक्र मिलाकर उसे पिलाया। वह मरा नहीं। "
इसी प्रकार संयती के मोक का आचमन करने पर साधु उसके वश में हो जाता है और तब वह प्रतिगमन आदि कर लेता है। इसलिए संयती का मोक नहीं पीना चाहिए। ५९८९. सुत्तेणेवऽववाओ, आयमइ पियेज्ज वा वि आगाढे।
आयमण आमय अणामए य पियणं तु रोगम्मि ॥ सूत्र के द्वारा ही अपवाद दिखाया गया है कि आगाढ़रोगातंक में मोक का आचमन करे या पीए । आचमन का अर्थ है- निलेपन, शरीर पर लगाना आमय रोग में तथा अनामय-निशाकल्प में होता है। मोक का पान करना तो रोग में ही संभव है अन्यथा नहीं।
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५९९०. दीहाइयणे गमणं, सामारिय पुच्छिए य अहगमणं ।
तासि सगारजुवाणं, कप्पड़ गमणं जहिं च भयं ॥ सर्प के काटने पर स्वपक्ष का मोक प्राप्त न हो तो संयती के प्रतिश्रय में जाए। वहां रहने वाले सागारिक को पूछकर भीतर प्रवेश करे। साध्वियों को भी सागारिक के साथ मोक के लिए साधु वसति में जाना कल्पता है जहां भय हो वहां दीपक लेकर जाए।
५९९१. निद्धं भुत्ता उववासिया व वोसिरितमत्तगा वा वि ।
सागारियाइसहिया, सभए दीवेण य ससद्दा ॥
यदि किसी मुनि को सर्प काट ले तो स्वपक्ष का मोक ही पिलाया जाता है। यदि इन कारणों से उनके मोक न हो उस दिन स्निग्ध आहार किया है, उपवास है, अभीअभी मोक का व्युत्सर्ग कर चुके हैं, ऐसी स्थिति में मोक लेने के लिए मुनि साध्वियों के प्रतिश्रय में जाए। साथ में सागारिक आदि को ले जाए। यदि भय हो तो दीपक लेकर
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