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तीसरा उद्देशक
५०१ ___ यदि एक ही वजिका में दो गच्छ स्थित हों तो दोनों के ग्लान आदि के कारण से स्थित हों तो वे अवग्रह के स्वामी लिए क्षेत्र समान होता है। किसी वजिका में पहले साधु स्थित होते हैं। हैं, फिर दूसरे साधु दूसरी वजिका से वहां आएं और वहीं ४८६८.अन्नत्थ वा वि ठाउं, पाइंति कइल्लए जइ निवाणे। स्थित हों तो पहले वाले साधु उस वजिका के स्वामी हैं, ते खलु ण होति पहुणो, सभावतूहे पहू इंति॥ पश्चात् आगत साधु प्रभु नहीं हैं।
अथवा पूर्वकृत कुटी या पडालिका को छोड़कर अन्यत्र ४८६३.अन्नोन्नं णीसाए, ठिताण साहारणं तु दोण्हं पि। स्थित हों और यदि पूर्वकृत निपान में गायों को पानी पिलाते ___णीसट्ठिताए अपभू, तत्थ व अण्णत्थ व वसंता॥ हैं तो आगंतुक साधु अवग्रह के अप्रभु होते हैं। यदि
जो मुनि परस्पर निश्रा में स्थित हो तो वह क्षेत्र दोनों के स्वाभाविक निपान में पानी पिलाते हैं तो आगंतुक साधु प्रभु लिए साधारण होता है। निश्रा से स्थित साधु तथा आगंतुक होते हैं। साधु उसी वजिका में स्थित हों तो वे पश्चात् आगत मुनि ४८६९.एमेव कासकप्पे, अतीरिए उट्टियाए पत्तियरा। अप्रभु होते हैं, पूर्वस्थित साधु ही प्रभु होते हैं।
पुविल्ला हुंति पहू, पुण्णे हट्ठा य न लहंति॥ ४८६४.दुग्गट्ठिए वीरअहिट्ठिए वा,
इसी प्रकार असंपूर्ण मासकल्प वाले क्षेत्र में पूर्व वजिका ___कते णिवाणे व ठिएहिं पुव्वं। उत्थित हो गई और नई वजिका आ गई तो पूर्वस्थित साधु भएण तोयस्स व कारणेणं,
अवग्रह के स्वामी होते हैं। जो स्वस्थ होने पर भी वहीं रहते ठायंतगाणं खलु होइ णिस्सा॥ हैं तो वे अवग्रह के स्वामी नहीं होते। दुर्ग पर स्थित या अन्य निर्भयस्थान पर स्थित अन्य ४८७०.फासुग गोयरभूमी, उच्चारे चेव छण्ण वसही य। वजिका अथवा वीर स्वामी द्वारा अधिष्ठित वजिका अथवा - हट्ठा वि लभंतेवं, तदभावे पच्छ जे पत्ता॥ पूर्वस्थित गोकुल द्वारा कृत निपानस्थान है वहां भय के कारण यदि वहां प्रासुक गोचरभूमी और उच्चारभूमी हो और या पानी के कारण वहां रहने वालों के लिए दूसरे वे आच्छन्न वसति प्राप्त हो और नीरोग मुनि भी वहां रहें तो गोकुलिकों की निश्रा होती है।
उन्हें अवग्रह का लाभ मिलता है। उन कारणों के अभाव में ४८६५.भयसा उठूतुमणा, वइगा अण्णा य तत्थ जइ एज्जा। पूर्व मुनियों को नहीं, किन्तु पश्चाद् प्राप्त मुनियों को अवग्रह
पच्छापत्ते निस्सा, जे पुव्वठिया ण ते पभुणो॥ का लाभ मिलता है। कोई वजिका भय के कारण अपने स्थान से अन्यत्र ४८७१.जेणोग्गहिओ सत्थो, जाना चाहती है, यदि नई वजिका वहां आ जाए, यदि
जेण य सस्थाहो समग दोण्हं पि। उसकी निश्रा पूर्व जिका लेती है तो पूर्वस्थित मुनि
जावइया पडिसत्था, उसके अवग्रह के स्वामी नहीं होते, किन्तु पश्चात् आने
पुव्वठिय साहारणं जं च॥ वाले के होते हैं।
जिस साधु ने सार्थ का पहले अवग्रहण कर लिया या ४८६६.वइगाए उट्ठियाए, अच्छंते अहव होज्ज गेलन्नं। जिसने सार्थवाह को पहले अनुज्ञापित कर लिया है उसका
अन्ने तत्थ पविट्ठा, तम्मि व अण्णम्मि वा तूहे॥ अवग्रह होता है। जितने भी प्रतिसार्थ-छोटे सार्थ होते हैं बड़े जिस वजिका में साधु रहते थे वह वजिका वहां से उठ सार्थ से मिलते हैं और उनमें जो साधु होते है वे पूर्व साधुओं गई, वहां रहने वाले मुनि अथवा कोई मुनि ग्लान हो गया तो से उपसंपन्न होते हैं। वहां परस्पर निश्रा से रहने के कारण मुनि वहीं रह रहे हैं और वहां अन्य गोकुलिक प्रविष्ट हो गए वह साधारण होता है, सबके लिए समान होता है। तो वहां 'तूहे'-गायों के पानी पीने का स्थान हो या अन्यत्र ४८७२.सत्थे अहप्पधाणा, एक्केणेक्केण सत्थवाहो उ। स्थान के अवग्रह की मार्गणा होती है।
आपुच्छिया विदिण्णे, दोण्ह वि मिलिया व एगट्ठा। ४८६७.जइ वा कुडी-पडालिसु,पुव्विल्लकतासु ते ठिता संता। सार्थ में जो प्रधानपुरुष होते हैं उनको एक साधु ने __ अण्णम्मि वि पज्जेता, तूहे अस्सामिणो होति॥ अनुज्ञापित कर डाला और एक ने सार्थवाह से पूछ लिया
यदि वे आगंतुक गोकुलिक पूर्व गोकुलिकों द्वारा किए और उसने आज्ञा दे दी तो दोनों का वह साधारण क्षेत्र हुए कुटी, पडालिका में स्थित हो तो अन्य तीर्थ में गायों को होता है। पानी पिलाने पर भी अवग्रह के अस्वामी होते हैं। अतः ४८७३.इंतं महल्लसत्थं, डहरागो पडिच्छए ण ते पभुणो। पूर्वस्थित साधु यदि निष्कारण होते हैं तो वे अस्थायी हैं। तुरियं वा आधावति, भएण एमेव अस्सामी।
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