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________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् राग-होसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ॥ (बृभा-२७१६) आचार्य शीतगृह के समान होते हैं। रागद्वेष से विप्रमुक्त होते हैं। जो पुण जतणारहितो, गुणो वि दोसायते तस्स। (बृभा-३१८१) जो यतनारहित होता है, उसके गुण भी दोष हो जाते हैं। कलं विणासेइ सयं पयाता, नदीव कुलं कुलडा उ नारी। (बृभा-३२५१) स्वच्छंदरूप से चलने वाली कुलटा नारी दोनों कुलों-पितृकुल और श्वसुरकुल का विनाश कर देती है जैसे महाप्रवाह से नदी अपने दोनों कुलों-तटों का विनाश कर देती है। अंधो कहिं कत्थ य देसियत्तं। (बृभा-३२५३) अंधा व्यक्ति मार्गदर्शक नहीं हो सकता। ७३८ चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि वज्जेइ। (बृभा-२१६६) -आम्रभक्षण में दोष देखने वाला, आम्रवृक्ष की छाया का भी वर्जन करता है। कम्म चिणंति सवसा, तस्सदयम्मि उ परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो॥ (बृभा-२६८९) -जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र होता है, परन्तु कर्मों के उदय में वह परवश होता है। मनुष्य वृक्ष पर चढ़ने में स्ववश होता है, परंतु उससे विगलित होने में वह परवश है। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइं। कत्थइ धणियो बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ (बृभा-२६९०) संसारी जीव कर्म के वशीभूत होते हैं। कहीं-कहीं कर्म जीव के वशीभूत होते हैं। कहीं-कहीं धनिक (ऋण देने वाला) बलवान् होता है। कहीं-कहीं धारणिक (ऋण लेने वाला) बलवान होता है। जइ परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। मज्झ मोणं चरतस्स, के अद्वे परिहायई। (बृभा-२७०२) यदि कोई पापकारी प्रवृत्ति करता है तो मेरा क्या? मौन का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान के अर्थ की परिहानि होती है? कुछ भी नहीं। (गच्छ में यह उपेक्षा उचित नहीं होती। अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी। (बृभा-२७११) साधर्मिक अवात्सल्य से दर्शन की हानि होती है। अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ। (बृभा-२७१२) निश्चय नय के अनुसार अकषाय ही चारित्र है। कषायसहित कोई संयत नहीं होता। जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहत्तेण॥ (बृभा-२७१५) जो चारित्र देशोनपूर्वकोटि वर्षों में अर्जित होता है, उसको कषायित चित्त वाला व्यक्ति एक मुहूर्त मात्र में नष्ट कर देता है। बुद्धीबलं हीणबला वयंति, किं सत्तजुत्तस्स करेइ बुद्धी। वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा। (बृभा-३२५४) निःसत्त्व व्यक्ति ही बुद्धिबल को बड़ा कहते हैं। जो सत्त्वयुक्त हैं उनका बुद्धि क्या करेगी? पृथ्वी शूरवीरों द्वारा भोग्य होती है। जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति ण सो धण्णो, जो जग्गति सो सया धण्णो। (बृभा-३३८२) मनुष्यो! जागो, प्रतिदिन जागरूक रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं होता। जो जागता है वह धन्य होता है। सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्म।। (बृभा-३३८३) सोने वाले पुरुषों के ज्ञान आदि सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं। इसलिए पुरुषो! जागते रहो और बंधे हुए कर्मों को तोड़ डालो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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