SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ७३९ देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। (बृभा-३९४८) देह की शक्ति वीर्य कहलाती है। इस शक्ति के सदृश होता है परिणाम। सूक्त और सुभाषित सुवति सुवंतस्स सुतं, संकित खलियं भवे पमत्तस्स। जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स॥ (बृभा-३३८४) जो सोता है उसका श्रुत भी सो जाता है। जो प्रमत्त होता है उसका श्रुत शंकित तथा स्खलित हो जाता है। जो जागता है और अप्रमत्त रहता है उसका श्रुत स्थिर और परिचित रहता है। नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया॥ (बृभा-३३८५) जहां आलस्य है वहां सुख नहीं, जहां निद्रा है वहां विद्या नहीं, जहां ममत्व है वहां वैराग्य नहीं और जहां हिंसा है वहां दयालुता नहीं है। ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। (बृभा-३६२७) सूत्र अर्थ का अतिरेक नहीं करता। संजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ। जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स। (बृभा-३९५१) संयम के लिए जो प्रवृत्ति होती है वह दोषवान् नहीं होती। जैसे वैद्य रोगी के आरोग्य के लिए व्रण आदि का छेदन करता है, वह अदोषवान् है। ___ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इत्थिए। (बृभा-४११८) स्त्रियों के शरीर को कोई आभूषण भूषित नहीं करता। उनका आभूषण है-शील और लज्जा। गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी। (बृभा-४११८) संस्कारयुक्त वाणी भी यदि असाधुवादिनी है तो वह सभा में शोभित नहीं होती। बाला य वुड्डा य अजंगमा य, लोगे वि एते अणुकंपणिज्जा। (बृभा-४३४२) लोक में ये सारे व्यक्ति अनुकंपनीय माने जाते हैं बाल, वृद्ध और अजंगम नर-नारी। न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई। (बृभा-४३६३) मूल में फूटा हुआ घट पानी को धारण करने में समर्थ नहीं होता। जस्सेव पभावुम्मिल्लिताइं तं चेव हयकतग्घाई। कुमुदाइं अप्पसंभावियाई चंदं उवहसंति॥ (बृभा-३६४२) जिस चन्द्रमा के प्रभाव से कुमुद खिलते हैं, वे 'हम ही शोभायमान हैं'-इस आत्मश्लाघा से चन्द्रमा का उपहास करते हैं। यह कृतघ्नता है। नहु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि। सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे॥ (बृभा-३७३९) उसके विषय में कोई शोक नहीं करना चाहिए जो चारित्र में दृढ़ रहकर कालगत हुआ है। वही शोचनीय होता है जो संयम में दुर्बल रहकर जीता जहा तवस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता। (बृभा-४४०१) जैसे तपस्वी अपने तप के द्वारा कर्मों को नष्ट करता है वैसे ही उस तप का अनुमोदन करने वाला भी कर्मों का क्षय करता है। लद्भूण माणुसत्तं, संजमसारं च दुल्लभं जीवा। (बृभा-३७४०) मनुष्य जीवन को पाकर भी जीवों के लिए संयमसार की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। (बृभा-३९२६) जीव का जैसे-जैसे अल्पतर योग-चेष्टा होती है, वैसेवैसे कर्मों का बंध भी अल्पतर होता है। एक्कम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बज्झंति वग्घा न य पंजरे दो॥ (बृभा-४४१०) एक ही आलानस्तंभ पर दो मत्त हाथियों का नहीं बांधा जाता और न एक ही पिंजरे में दो व्याघ्र रखे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy