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________________ ३९४ ३८१७.तरच्छचम्म अणिलामइस्स, कडि व वेढेति जहिं व वातो। एरंड-ऽणेरंडसुणेण डक्वं, वेढेंति सोविंति व दीविचम्मे॥ जो आर्या वात रोग से ग्रस्त है उसकी कटी तरक्ष के चर्म से वेष्टित की जाती है तथा जहां-कहीं वायु की पीड़ा हो वहां वह चर्म बांधा जाता है। जिस आर्या को कुत्ते ने या हडक्किय कुत्ते ने काटा हो, उसको चर्म में वेष्टित कर दिया जाता है अथवा हाथी के चर्म पर सुलाया जाता है। ३८१८.पुया व घस्संति अणत्थुयम्मि, __पासा व घस्संति व थेरियाए। लोहारमादीदिवसोवभुत्ते, लोमाणि काउं अह संपिहंति॥ स्थविरा आर्या बिना संस्तृत भूमी पर बैठती है तो उसके पुत घिस जाते हैं, सोती है तो दोनों पार्श्व घिस जाते हैं। वह स्थविरा आर्या लुहार आदि द्वारा दिन में परिभुक्त चर्म को प्रातिहारिक रूप में प्रतिदिन ग्रहण कर, उस चर्म के लोमों को नीचे कर, उसका परिभोग करे। ३८१९.दिवसे दिवसे व दुल्लभे, उच्चत्ता घेत्तुं तमाइणं। लोमेहिं उण संविजोअए, मउअट्ठा व न ते समुद्धरे॥ प्रतिदिन उसकी प्राप्ति दुर्लभ हो तो उच्चत्ता-अपनी निश्रा में उस चर्म को ग्रहण कर उसके सारे लोम निकाल दे। लोम निकालने से वह चर्म परुषस्पर्श वाला हो जाता है अतः मृदुता के लिए लोम को यथावत् न रखें। कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माई अहिद्वित्तए, से वि य परिभुत्ते नो चेव णं अपरिभुत्ते, पाडिहारिए नो चेव णं अपाडिहारिए, से वि य पाडिहारिए नो चेव णं अप्पाडिहारिए, से वि य एगराइए नो चेव णं अणेगराइए॥ (सूत्र ४) ३८२०.दोसा तु जे होति तवस्सिणीणं, लोमाइणे ते ण जतीण तम्मि। तं कप्पती तेसि सुतोवदेसा, जंकप्पती तासि ण तं जतीणं॥ सलोमचर्म के उपभोग से जो दोष आर्याओं के होते हैं वे दोष यतियों के नहीं होते। इसलिए उनको श्रुतोपदेश से १. पुस्तकों के स्वरूप के लिए देखें-वृ. पृ. १०५४। बृहत्कल्पभाष्यम् उनका परिभोग कल्पता है। श्रमणियों को जो निर्लोम चर्म कल्पता है वह यतियों को नहीं कल्पता। सलोम चर्म भी निर्ग्रन्थों को उत्सर्गतः नहीं कल्पता। ३८२१.निग्गंथाण सलोम, ण कप्पती झुसिर तं तु पंचविहं। पोत्थग-तणपण दूसं, दुविहं चम्मम्मि पणगं च॥ सलोम चर्म शुषिर होता है, अतः वह मुनियों को नहीं कल्पता। शुषिर पांच प्रकार का है-पुस्तकपंचक, तृणपंचक, दूष्यपंचक यह दो प्रकार का है-अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक, दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक तथा चर्मपंचक। ३८२२.गंडी कच्छति मुट्ठी, छिवाडि संपुडग पोत्थगा पंच। तिण सालि-वीहि-कोदव-रालग-आरण्णगतणं च॥ पुस्तकपंचक-गंडीपुस्तक, कच्छपीपुस्तक, मुष्टिपुस्तक, छेदपाटीपुस्तक, सम्पुटफलकपुस्तक।' तृणपंचक-शाली, व्रीही, कोद्रव, रालक, आरण्यकतृण। ३८२३.कोयव पावारग दाढिआलि पूरी तधेव विरली य। एयं दुपेहपणयं, इणमण्णं अपडिलेहाणं। दूष्यपंचक१. कोयवि-रूई से भरा हुआ पट 'रजाई'। २. प्रावारक-नेपाल आदि में निर्मित प्रचुर रोम वाली बृहत्कंबल। ३. दाढिआली-ब्राह्मणों का एक परिधान, जिसके दोनों ओर किनारी हो और जो दंतपंक्ति की भांति प्रतीत हो रही हो। ४. पूरिका-स्थूल शणमय डोरी से निष्पन्न वस्त्र-जैसे धान्यगोणी। ५. विरलिका-द्विसरोवाली सूत्रपटी। इन दूष्यपंचक का सम्यग्रूप से प्रत्युपेक्षण नहीं हो सकता, अतः ये दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक कहलाते हैं। ३८२४.उवहाण तूलि आलिंगणी उ गंडोवहाण य मसूरा। गो-माहिस-अय-एलग-रणमियाणं च चम्मं तु।। अन्य अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक१. उपधान-रूई या हंसरोम आदि से भरा हुआ तकिया। २. तूली-साफ की हुई रूई या अर्कतूल से भरा हुआ तकिया या गादी। ३. आलिंगनिका-पुरुष के प्रमाणवाला लंबा बिछौना जो सोने वाले के घुटने और कोहनी के नीचे रखा जाता है। ४. गंडोपधान-गाल के पास रखा जाने वाला तकिया। ५. मसूरक-चर्मकृत या वस्त्रकृत गोल तकिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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