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________________ तीसरा उद्देशक = ३९३ करे जिनसे ब्रह्मव्रत की पीड़ा हो। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र प्रत्युपेक्षण भी शुद्ध नहीं होता। वर्षा में कुन्थु, पनक आदि का योग है-संबंध है। चर्म में लग जाते हैं। उसका प्रतापन करने से अग्नि की ३८०६.सतिकरणादी दोसा, अण्णोण्णउवस्सगाभिगमणेण। विराधना होती है और प्रतापन न करने पर प्राणियों की उसमें सतिकरण-कोउहल्ला, मा होज्ज सलोमए अहवा॥ उत्पत्ति होती है-इस प्रकार दोनों ओर से दोष होता है। अन्योन्य उपाश्रय में अभिगमन करने से स्मृतिकरण ३८१२.आगंतु तदुब्भूया, सत्ताऽझुसिरे वि गिण्तुिं दुक्खं । आदि दोष होते हैं। सलोम वाले चर्म को ग्रहण करने से आर्या अह उज्झति तो मरणं, सलोम-णिल्लोमचम्मेयं ।। के स्मृतिकरण और कौतूहल न हो इसलिए प्रस्तुत सूत्र का अशुषिर उपधि आदि से आगंतुक सत्त्वों तथा तद् उद्भूत प्रारंभ होता है। अथवा यह अपर संबंध-सूत्र है। सत्त्वों को निकालना कष्टप्रद होता है तो फिर शुषिर सलोम३८०७.चम्मम्मि सलोमम्मि, णिग्गंथीणं उवेसमाणीणं। चर्म की तो बात ही क्या? यदि उन जन्तुओं को छोड़ा जाता चउगुरुगाऽऽयरियादी, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ है तो उनका मरण हो सकता है। यह सलोमचर्म की बात लोमयुक्त चर्म पर बैठने वाली आर्या को चतुर्गुरुक और है। अब सलोम-निर्लोमचर्म-दोनों के दोषों के विषय में यह यदि आचार्य इस सूत्र को प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो वे भी कथन है। चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। प्रवर्तिनी श्रमणियों को ३८१३.भारो भय परितावण,मारण अहिकरणमेव अविदिण्णे। न कहे तो चतुर्गुरु और श्रमणियां स्वीकार न करे तो तित्थकर-गणहरेहिं, सतिकरणं भुत्तभोगीणं ।। लघुमास तथा सभी में आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। सलोम-निर्लोमचर्म को वहन करना भारी होता है। भय ३८०८.गहणे चिट्ठ णिसीयण, तुयट्टणे य गुरुगा सलोमम्मि। होता है। जीवों का परितापन और मारण होता है। अधिकरण णिल्लोमे चउलहुगा, समणीणारोवणा चम्मे॥ की संभावना होती है। यह उपधि तीर्थंकरों और गणधरों सलोम चर्म ग्रहण करना, उस पर खड़े होना, बैठना, द्वारा अदत्त है, अननुज्ञात है। सलोमचर्म का उपभोग करने सोना-इन सबमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। निर्लोमचर्म में वाली भुक्तभोगिनी श्रमणियों के स्मृतिकरण और अन्य चतुर्लघु। यह श्रमणियों के लिए चर्मविषयक आरोपणा है। श्रमणियों के मन में कुतूहल होता है। ३८०९.कुंथु-पणगाइ संजमे, कंटग-अहि-विच्छुगाइ आयाए। ३८१४.जइ ता अचेतणम्मि, अयिणे फरिसो उ एरिसो होति। भारो भयभुत्तियरे, पडिगमणाई सलोमम्मि॥ किमुया सचेतणम्मि, पुरिसे फरिसो उ गमणादी। सलोम चर्म में कुन्थु, पनक आदि होते हैं। उस पर बैठने वह श्रमणी सोचती है-यदि अचेतन चर्म में भी ऐसा आदि से संयम की विराधना होती है। उस पर बैठे हुए स्पर्श होता है तो सचेतन पुरुष का स्पर्श कैसा होता होगा? कंटक, अहि, बिच्छु आदि से उपघात होने पर आत्म- यह सोचकर वह संयम से पलायन कर जाती है। विराधना होती है। सलोम चर्म का भार बहुत होता है। चोरों ३८१५.बिइयपय कारणम्मि, चम्मुव्वलणं तु होति णिल्लोमं। का भय रहता है। भुक्तभोगिनियों का स्मृतिकरण और आगाढ कारणम्मि, चम्म सलोमं पि जतणाए। अभुक्तभोगिनी श्रमणियों के मन में कुतूहल होता है। इससे वे अपवादपद में चर्म ग्रहण किया जा सकता है। किसी प्रतिगमन कर सकती हैं, गृहवास कर सकती हैं। आर्या के अभ्यंगन के प्रयोजन से निर्लोम चर्म और ३८१०.तसपाणविराहणया, चम्म सलोमे उ होति अहिकरणं। आगाढ़ कारण में सलोम चर्म का यतनापूर्वक परिभोग किया णिल्लोमे तसपाणा, संकुयमाणे य करणं वा॥ जाता है। सलोम चर्म में त्रसप्राणियों की विराधना होती है, ३८१६.उड्डम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा, अधिकरण होता है। निर्लोम चर्म में त्रस प्राणियों की विराधना अरिसासु सूले व विमोइते वा। होती है। उसके संकचित होने पर श्रमणी पादकर्म कर ___एगंग-सव्वंगगए व वाते, सकती है। अब्भंगिता चिट्ठति चम्मऽलोमे। ३८११.अविदिण्णोवधि पाणा, किसी आर्या के ऊर्ध्ववायु का प्रकोप हो गया हो, कोई पडिलेहा वि य ण सुज्झति सलोमे।। धनुर्ग्रह पीड़ित हो, किसी के अर्श, शूल आदि हो, किसी के वासासु य संसज्जति, हाथ-पैर अपने स्थान से चलित हो गए हों, किसी के एक पतावमपतावणे दोसा॥ अंग में अथवा पूरे अंग में वायु उत्पन्न हो गया हो, वह आर्या सलोमचर्म रूपी उपधि अवितीर्ण है, अननुज्ञात है। इसका अभ्यंगित होकर निर्लोम चर्म पर बैठ सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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