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________________ ३९२ ३७९५. सद्दम्मि हत्थ - वत्थादिएहिं दिद्विम्मि चिलिमिणंतरिओ । संलावम्मि परम्मुहो, गोवालगकंचुतो फासे ॥ यदि वह मुनि शब्द में असहिष्णु हो तो उस ग्लान आर्या से कहे मुझे वचनों से न बुलाए किन्तु हाथ, वस्त्र या अंगुली के इशारे से बुलाए। यदि वह दृष्टि से क्लीब हो तो सारा वैयावृत्य चिलिमिलिका से अन्तरित होकर करे। यदि वह संलाप में असहिष्णु हो तो पराङ्मुख होकर संलाप करे। यदि वह स्पर्श में क्लीब हो तो गोपालककंचुक से प्रावृत होकर उसका स्पर्श करे। ३७९६. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीए वि होति असहूए । दोहं पि हु असहूणं, तिगिच्छ जयणाए कायव्वा ॥ यही विकल्प नियमतः आर्या के असहिष्णु होने पर है। यदि दोनों असहिष्णु हों तो यतनापूर्वक चिकित्सा कराए। ३७९७. आयंकविप्पमुक्का, हट्टा बलिया य णिव्वुया संती । अज्जा भणेज्ज काई, जेदृज्जा ! वीसमामो ता ॥ ३७९८. दिवं च परामुट्ठे च रहस्सं गुज्झ एक्कमेक्स्स । तं वीसमामो अम्हे, पच्छा वि तवं चरिस्सामो ॥ रोग से मुक्त होकर, हृष्ट, बल प्राप्त कर, स्वस्थ होने पर वह आर्या कहे- 'ज्येष्ठ आर्य! अब हम कुछ समय तक विश्राम करें। क्योंकि हम दोनों ने परस्पर एक-दूसरे का एकान्तयोग्य उद्वर्तन-परिवर्तनजन्य जो सुख था उसे देखा है, परामृष्ट किया है। अब हम कुछ काल तक विश्राम करें। पश्चिम काल में हम दोनों तप का आचरण करेंगे।' ३७९९. तं सोच्चा सो भगवं, संविग्गोऽवज्जभीरू दढधम्मो । अपरिमियसत्तजुत्तो, णिक्कंपो मंदरो चेव ॥ आर्यिका के इस वचन को सुनकर वह संविग्न, पापभीरू, दृढधर्मी, अपरिमितसत्त्ववाला ज्ञानवान् मुनि मंदरपर्वत की भांति अप्रकंप रहा। ३८००.उद्धंसिया य तेणं, सुड्डु वि जाणाविया य अप्पाणं । चरसु तवं निस्संका, उ सासियं सो उ चेतेइ ॥ उस मुनि ने उस आर्या की अत्यंत भर्त्सना की और उसे अपनी बात भलीभांति समझा दी। मुनि ने कहा- निःशंक होकर तप-संयम का पालन कर। यह अनुशासन कर मुनि वहां से विहार कर गया। ३८०१.बिइयपयमणप्पज्झे, पविसे अविकोविए व अप्पज्झे । तेणऽगणि-आउसंभम, बोहिकतेणेसु जाणमवि ॥ अपवादपद में संयती की वसति में अनात्मवश कोई मुनि १. संवर-स्नानिकाशोधकम्। (बृ. पृ. १०५०) Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् प्रवेश कर दे। कोई अकोविद शैक्ष भी वहां प्रवेश कर दे। अथवा स्तेन, अग्नि, अप्कायसंभ्रम, बोधिकस्तेन अथवा जानता हुआ गीतार्थ भी प्रवेश कर दे। निग्गंथउवस्सय-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथाणं उवस्सयसि चिट्ठित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए ॥ (सूत्र २) ३८०२. पडिवक्खेणं जोगो, तासिं पि ण कप्पती जतीणिलयं । णिक्कारणगमणादी, जं जुज्जति तत्थ तं यं ॥ प्रतिपक्ष वचन से पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध है। आर्याओं को भी यतिनिलय में बिना कारण जाना नहीं कल्पता। यहां जिस प्रवृत्ति का जो प्रायश्चित्त हो उसे जानना चाहिए। ३८०३. एसेव गमो णियमा, पण्णवण परूवणासु अज्जाणं । पडिजग्गती गिलाणं, साहुं जतणाए अज्जा वि ॥ यही अर्थात् पूर्व सूत्रोक्त विकल्प नियमतः आर्याओं के लिए प्रज्ञापन और प्ररूपण के विषय में जानना चाहिए। आर्या भी ग्लान मुनि का यतनापूर्वक वैयावृत्य कर सकती है। ३८०४. सा मग्गइ साधम्मिं, सण्णि अहाभद्द संवरादी वा । देति य से वेदणयं, भत्तं पाणं च पायोग्गं ॥ वह आर्या (दूसरे-तीसरे चौथे भंग में) साधर्मिक साधु की मार्गणा करती है। उसके अभाव में श्रावक की, फिर यथाभद्र की, फिर संवर' अर्थात् स्नानशोधक आदि की मार्गणा करे। यदि ये बिना मूल्य काम करना न चाहे तो वेतन देकर, भक्त-पान तथा प्रायोग्य प्रदान कर उनकी सेवा ले। चम्म-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइं चम्माई अहिट्ठित्त ॥ (सूत्र ३) ३८०५. बंभवयपालणट्ठा, अण्णोण्णउवस्सयं ण गच्छति । उवकरणं पिण इच्छति, जहिं पीला तस्स जोगोऽयं ॥ ब्रह्मचर्य के पालन के लिए साधु-साध्वी एक दूसरे के उपाश्रय में न जाए और परस्पर ऐसे उपकरण भी ग्रहण न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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