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तीसरा उद्देशक
चर्मपंचक-(१) गोचर्म (२) महिषचर्म (३) अजाचर्म- छगलिका का चर्म (४) एडकचर्म-भेड़ का चर्म (५) आरण्यकमृग-अरण्य के पशुओं मृग, शशक आदि का
चर्म।
३८२५.जहिं गुरुगा तहिं लहुगा,
जहिं लहुगा चउगुरू तहिं ठाणे। दोहिं लहू कालगुरू,
तवगुरुगा दोहि वी गुरुगा॥ आर्याओं के लिए सलोमचर्म का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक और मुनियों के लिए है-चतुर्लघुक तथा निर्लोम चर्म का प्रायश्चित्त आर्याओं के लिए चतुर्लघुक और मुनियों के लिए है चतुर्गुरुक। आर्याओं और मुनियों के प्रथम स्थान में अर्थात् ग्रहण करने में तप और काल से लघु, ऊर्ध्वस्थान में कालगुरु, निषीदन में तपोगुरु, शयन में दोनों अर्थात् तप और काल से गुरु।
(पुस्तकपंचक, तृणपंचक, दोनों प्रकार के दूष्यपंचक- इनमें श्रमण-श्रमणियों का प्रायश्चित्त है चतुर्लघु।) ३८२६.संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं।
संकामण पलिमंथो, पमाय परिकम्मणा लिहणा॥ पुस्तकपंचक के दोष-ग्रामान्तर ले जाते समय कंधों का संघर्षण होता है। पूरा प्रत्युपेक्षण नहीं होता। भार लगता है। कुंथु, पनक आदि की संसक्ति के कारण अधिकरण होता है। यह अदत्त उपधि है। उनके संक्रमण से पलिमंथु होता है। प्रमाद-पुस्तक में लिखा हुआ है अतः स्वाध्याय न करने से श्रुत का नाश होता है। उनके परिकर्म में सूत्रार्थ की हानि और अक्षरलेखन में प्राणव्यपरोपण होता है। ३८२७.पोत्थग जिण दिढतो, वग्गुर लेवे य जाल चक्के य।
लोहित लहुगा आणादि मुयण संघट्टणा बंधे॥ पुस्तकें शुषिर होती हैं। वहां जो जंतुओं का उपघात होता है, उस विषयक जिनेश्वर देव ने चार दृष्टांत दिए हैं-वागुरा, लेप, जाल और चक्र। उन पुस्तकों के अंतर्गत जन्तुओं की हत्या हो सकती है। उनका रुधिर अक्षरों पर फैल सकता है। जितनी बार पुस्तक को खोलता है, बांधता है, अक्षरों का पुनः लेखन करता है उतने चतुर्लघु तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। पुस्तक को खोलने या बांधने में जीवों की संघट्टना होती है। तद्विषयक प्रायश्चित्त आता है। ३८२८. चउरंगवग्गुरापरिवुडो वि फिट्टेज्ज अवि मिगो रण्णे।
छीर खउर लेवे वा, पडिओ सउणो पलाएज्जा। चतुरंगवागुरा से परिवृत मृग भी उससे छूट कर अरण्य में भाग जाता है, किन्तु पुस्तकों के पत्रान्तर में प्रविष्ट जंतु
३९५ निकल नहीं सकते। शकुन-पक्षी अर्थात् मक्षिका दूध में, खपुर-चिकने द्रव्य में, लेप में गिरने पर भी पलायन कर जाती है किन्तु पुस्तकजीव कहीं पलायन नहीं कर सकते। ३८२९.सिद्धत्थगजालेण व,
गहितो मच्छो वि णिप्फिडेन्जा हि। तिलकीडगा व चक्के,
तिला व ण य ते ततो जीवा।। सिद्धार्थकजाल अर्थात् जिस जाल के द्वारा सर्षप गृहीत होते हैं, उस जाल में फंसा मत्स्य भी कदाचित् निकल कर पलायन कर जाता है, तिलपीडनयंत्र में प्रविष्ट तिलकीटक अथवा तिल भी बच जाते हैं, किन्तु उन पुस्तकों में प्रविष्ट जीव निकल नहीं पाते, बच नहीं पाते। ३८३०.जइ तेसिं जीवाणं, तत्थगयाणं तु लोहियं होज्जा।
पीलिज्जंते धणियं, गलेज्ज तं अक्खरे फुसितं॥ यदि पुस्तकपत्रान्तरों में स्थित उन जीवों का खून हो जाए या पुस्तक बांधने के समय उनका अधिक मसले जाने पर उनका रक्त अक्षरों का स्पर्श करता हुआ बाहर निकलने लगता है। ३८३१.जत्तियमेत्ता वारा,
उ मुंचई बंधई व जति वारा। जति अक्खराणि लिहति व,
तति लहुगा जं च आवजे॥ जितनी बार पुस्तकों को खोलता है और जितनी बार बांधता है, जितने अक्षर लिखता है, उतने ही चतुर्लघु प्रायश्चित्त हैं। तथा जीवों का संघट्टन और परितापन होता है, तान्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३८३२.तणपणगम्मि वि दोसा,
विराहणा होति संजमा-ऽऽताए। सेसेसु वि पणगेसुं,
विराहणा संजमे होति॥ तुणपंचक में भी दोष और संयम तथा आत्मविराधना होती है। शेष पंचकों में भी संयमविराधना होती है। ३८३३.अहि-विच्चुग-विसकंडगमादीहि
खयं व होज्ज आयाए। कुंथादि संजमम्मि,
जति उव्वत्तादि तति लहुगा॥ तृण शुषिर होते हैं अतः उनमें सांप, वृश्चिक, विषकंटक आदि से डसा जा सकता है तथा क्षत होने पर आत्मविराधना होती है। कुंथु आदि जीवों के व्यपरोपण से संयमविराधना होती है। तृणों पर सोकर जितनी बार उद्वर्तन, परिवर्तन,
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