SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा उद्देशक ५०९ निष्कारण रह रहे हैं। यदि वे कार्यवश भी ठहरे हैं तो वे सब वह यदि राजा के पास शिकायत करे तो साधु भी उसे यतना से हीन हैं-शून्य हैं। वे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त न्यायाधीश के पास घसीटे। यहां श्रीगृह का उदाहरण है। हो जाते हैं। वहां रहते हुए यह यतना आवश्यक है। ४९२६.अहिकारो वारणम्मि,जत्तिय अप्फुण्ण तत्तिया वसही। ४९२१.असिवादिकारणेहिं, अण्णाऽसति वित्थडाए ठायंति। . अतिरेग दोस भगिणी, रतिं आरद्धे णिच्छुभणं ।। ओतप्पोत करिती, संथारग-वत्थ-पादेहिं।। ४९२७.आवरितो कम्महिं, सत्तू विव उहितो थरथरंतो। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर, दूसरी वसति के मुंचति य भेंडितातो, एक्कक्कं भे निवादेमि।। अभाव में विस्तृत वसति में भी रहा जा सकता है। वहां वे ४९२८.निग्गमणं तह चेवा, णिहोस सदोसऽनिग्गमे जतणा। उस वसति की भूमी को अपने संस्तारकों-वस्त्रों तथा पात्रों सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा। से ओतप्रोत कर देते हैं, भर देते हैं। यहां वर्जना का अधिकार चल रहा है। इसलिए मुनियों ४९२२.भूमीए संथारे, अड्डवियड्डे करेंति जह दट्ठ। को उत्सर्गतः घंघशाला में नहीं ठहरना चाहिए। इसलिए ठातुमणा वि दिवसओ, ण ठंति रत्तिं तिमा जतणा।।। जितने साधुओं से वसति 'अप्फुण्ण' व्याप्त हो जाए उस उस विशाल उपाश्रय में उन साधुओं को चाहिए कि वे प्रमाण वाली वसति की खोज करनी चाहिए। इससे अतिरिक्त वहां भूमी पर संस्तारक अस्त-व्यस्त रूप से करें, जिससे वसति में रहने पर पूर्वोक्त दोष होते हैं। कारणवश उसमें भी कि दिन में वहां बैठने का इच्छुक व्यक्ति बैठ न सके। रात्री में रहने पर कोई पुरुष स्त्री के साथ वहां आता है और कहता है यह यतना है। यह मेरी भगिनी है। रात्री के प्रारंभ होने पर वह पुरुष उस ४९२३.वेसत्थीआगमणे, अवारणे चउगुरुं च आणादी। स्त्री के साथ प्रतिसेवना करने लगता है। तब साधु उसकी अणुलोमण निग्गमणं, ठाणं अन्नत्थ रुक्खादी॥ भर्त्सना करते हैं और उसका वहां से निष्कासन कर देते हैं। वेश्यास्त्री यदि रात्री में उपाश्रय में आती है तो उसे वह व्यक्ति कर्मों से आवृत होने के कारण शत्रु की भांति मनाही करनी चाहिए। यदि उसका वर्जन न किया जाए तो उठकर, कांपता हुआ मुंह से 'भिंडिका' जोर से चिल्लाता चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। उसको अनुकूल हुआ कहता है-मैं एक-एक साधु को गिरा दूंगा। वचनों से प्रतिषेध करना चाहिए। यदि वेश्यास्त्री वहां से उसके विरुद्ध हो जाने पर साधु उस वसति को छोड़कर निर्गमन करना न चाहे तो साधुओं को अन्यत्र स्थान में चले अन्यत्र चले जाएं। यदि दूसरी वसति निर्दोष हो तो वहां चले जाना चाहिए। कोई स्थान न मिले तो वृक्ष आदि के नीचे जाएं। यदि वसति सदोष हो तो वहां से न जाए और यह रहना चाहिए। यतना करे। जोर-जोर से स्वाध्याय करे या ध्यान में बैठ ४९२४.पुढवी ओस सजोती, हरिय तसा उवधितेण वासं वा। जाएं। यदि स्वाध्याय और ध्यान की लब्धि न हो तो कानों सावय सरीतेणग, फरुसादी जाव ववहारो॥ का स्थगन कर दे या जोर से बोलने लग जाए। यद्यपि अन्य वसति पृथ्वीकाय, अवश्याय, अग्नि, ४९२९. वडपादव उम्मूलण,तिक्खम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। हरितकाय तथा वसप्राणी सहित हो तो भी वहां चले जाना कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं॥ चाहिए। बाहर उपधि स्तेन हों, वर्षा आ रही हो, श्वापद तथा ४९३०.तह समणसुविहिताणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। शरीरस्तेन हों तो परुष वचनों से उस वेश्या को अपने कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कासति हवेज्जा। उपाश्रय से बाहर निकल जाने के लिए कहना चाहिए। यदि प्रश्न होता है कि प्रतिसेवना करते देखकर सुविहित इससे भी न माने तो व्यवहार करने में भी नहीं हिचकना मुनि के कर्मोदय कैसे होता है? भाष्यकार कहते हैं-वटवृक्ष चाहिए। अनेक स्थानों पर बद्धमूल होने पर भी गिरि नदी के पानी ४९२५.अम्हे दाणि विसहिमो, इड्डिमपुत्त बलवं असहणोऽयं। के वेग से उखड़ जाता है। तीक्ष्ण पानी के वेग में प्रयत्न णीहि अणिते बंधण, णिवकड्डण सिरिघराहरणं॥ करने पर भी मनुष्य बह जाता है। पंक बहुल स्थान में साधु कहे-हम क्षमाशील हैं। हम अब सब कुछ सहन सावधानीपूर्वक चलने पर भी मनुष्य फिसल कर गिर पड़ता करते हैं। परंतु वह मुनि ऋद्धिमत्पुत्र है, बलवान् है, वह कुछ है। वह वहां अवश होकर संभल नहीं पाता। उसी प्रकार भी सहन नहीं करेगा। इसलिए तुम यहां से स्वयं चली सुविहित श्रमण भी सप्रयत्नपूर्वक यतमान होने पर भी, जाओ। यदि चली जाती है तो अच्छा है, अन्यथा सभी साधु कर्मोदय के कारण किसी-किसी के चारित्र की विराधना हो मिलकर उस वेश्या स्त्री को बांध ले, प्रातः उसे मुक्त कर दे। सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy