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________________ चौथा उद्देशक ५३७ ५१९९.विगइ अविणीए लहुगा, शरीर से हृष्टपुष्ट होने पर भी कोई मुनि रस की पाहुड गुरुगा य दोस आणादी। लोलुपतावश विकृतियों को नहीं छोड़ता, वह वाचना के लिए सो य इयरे य चत्ता, अयोग्य होता है। जैसे अभ्यंग के बिना शकट नहीं चलता बितियं अद्धाणमादीसु॥ वैसे ही कोई मुनि विकृति के बिना शरीर का निर्वाह नहीं कर विकृतिप्रतिबद्ध अविनीत को वाचना देने पर चतुर्लघु, सकता। यदि वह गुरु की आज्ञा से विकृति ग्रहण करता है कलह को अनुपशांत करने वाले को वाचना देने पर चतुर्गुरु तो वह वाचना के योग्य है। का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वह और ५२०५.उस्सग्गं एगस्स वि, ओगाहिमगस्स कारणा कुणति। इतर मुनि परित्यक्त हो जाते हैं। विनय न करने वाला गिण्हति व पडिग्गहए, विगतिं वर मे विसज्जिंता॥ ज्ञानाचार की विराधना करता है, इसलिए वह परित्यक्त है, कोई एक मुनि योगवाही है। वह अन्य कोई एक दूसरे उसको देखकर विनय से मुंह मोड़ लेते हैं, इसलिए अवगाहिम लेने के कारण कायोत्सर्ग करता है अथवा वह परित्यक्त है। इसमें द्वितीयपद-अपवाद यह है-अध्व आदि में अपने पात्र में विकृति ग्रहण करता है। वह सोचता है इस अविनीत आदि उपकार करते हैं अतः वे वाचनीय हैं। उपाय से भी मुझे विकृति प्राप्त होगी। इस प्रकार वह माया ५२००.अविणीयमादियाणं, तिण्ह वि भयणा उ अट्ठिया होति। करता है। ___ पढमगभंगे सुत्तं, पढमं बितियं तु चरिमम्मि॥ ५२०६.अतवो न होति जोगो, अविनीत आदि तीनों पदों की अष्टभंगी होती है, जैसे ण य फलए इच्छियं फलं विज्जा। १. अविनीत विकृतिप्रतिबद्ध अव्यवशमितकलह, २. अविनीत अवि फलति विउलमगुणं, विकृतिप्रतिबद्ध व्यवशमितकलह यावत् आठवां भंग है-विनीत साहणहीणा जहा विज्जा॥ विकृति अप्रतिबद्ध व्यवशमितकलह। प्रथम भंग में पहला सूत्र श्रुत संबंधी व्यापार तप के बिना नहीं होता। तप के बिना और चरम अर्थात् आठवें भंग में दूसरा सूत्र आता है। श्रुतज्ञान रूप ग्रहण विद्या ईप्सित फलवाली नहीं होती, प्रत्युत ५२०१.इहरा वि ताव थब्भति,अविणीतो लंभितो किमु सुएण। विपुल अनर्थ फलित होता है। जैसे साधनहीन विद्या, बिना मा णट्ठो णस्सिहिती, खए व खारावसेओ तु॥ किसी उपचार के ग्रहण की जाने वाली विद्या उचितरूप में अविनीत व्यक्ति बिना ज्ञान दिए भी स्तब्ध होता है। यदि फलित नहीं होती। उसे श्रुत दे दिया जाए तो फिर कहना ही क्या? जो स्वयं ५२०७.अप्पे वि पारमाणिं, अवराधे वयति खामियं तं च। नष्ट हो चुका है वह दूसरों को नष्ट न करे, क्षत पर कोई बहुसो उदीरयंतो, अविओसियपाहुडो स खलु॥ नमक न छिडके, इसलिए अविनीत को वाचना नहीं देनी जो थोड़े से अपराध में भी पारमाणी-परम क्रोध चाहिए। समुद्घात को प्राप्त होता है, उस अपराध को उपशांत कर ५२०२.गोजूहस्स पडागा, सयं पयातस्स वड्डयति वेगं। देने पर भी जो अनेक बार उसकी उदीरणा करता है वह ___ दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा॥ 'अव्यवशमितकलह' होता है। गोयूथ स्वयं प्रस्थित है। अग्रगामी गोपाल जब उसको ५२०८.दुविधो उ परिच्चाओ,इह चोदण कलह देवयच्छलणा। पताका दिखाता है तो उसका वेग बढ़ जाता है, यह श्रुति है। परलोगम्मि य अफलं, खित्तम्मि व ऊसरे बीजं॥ इसी प्रकार दुर्विनीत को ज्ञान देने से उसका अविनय बढ़ता ऐसे व्यक्ति को वाचना देने से दो प्रकार का परित्याग ही है। रोग के तीव्रतर वेग में औषध शमनकारी नहीं होती होता है-इहलोक का परित्याग और परलोक का परित्याग। और न वह निदान के अनुरूप ही होती हैं। इहलोक परित्याग-उसको यदि स्मारणा आदि से प्रेरित ५२०३. विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि। किया जाता है तो वह कलह करता है। अपात्र को वाचना देने न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई॥ से प्रान्तदेवता छल लेता है। परलोक परित्याग ऐसे व्यक्ति विनय से अधीत विद्या इहलोक और परलोक में फल देने को श्रुत देना अफलदायी होता है, जैसे ऊसर भूमी में बोया वाली होती है। विनयहीन व्यक्तियों की विद्याएं फलवती नहीं हुआ बीज निष्फल होता है। होतीं, जैसे पानी के बिना धान नहीं फलते, खेती नहीं होती। ५२०९.वाइज्जंति अपत्ता, हणुदाणि वयं पि एरिसा होमो। ५२०४.रसलोलुताइ कोई, विगतिं ण मुयति दढो वि देहेणं। इय एस परिच्चातो, इह-परलोगेऽणवत्था य॥ अब्भंगेण व सगडं, न चलइ कोई विणा तीए॥ अपात्रों को वाचना दी जाती है तो दूसरे शिष्य भी सोचते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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