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________________ ५३६ है। यदि तुम ऐसा करना चाहते हो तो परतीर्थिकों में चले जाओ। ५१८९. तुमए समगं आमं, ति निग्गओ भिक्खमाइलक्खेणं । नासति भिक्खुगमादिसु, छोढूण ततो वि हि पलाति ॥ तब यदि वह कहे- मैं परतीर्थिकों के पास तुम्हारे साथ ही जाऊंगा। वह मुनि उसको लेकर जाता है। भिक्षुक आदि के वेष में जाकर उसे वहां छोड़कर भाग जाता है। यदि वहां भी उसे छोड़ना नहीं चाहता तो रात्री में उसे सोते हुए छोड़कर चला जाता है या भिक्षा आदि के लक्ष्य से बाहर चला जाता है। तओ नो कप्पंति मुंडावेत्त सिक्खावेत्तए उवट्ठावेत्तए संभुंजित्त संवासित्तए, तं जहा - पंडए वाइए कीवे ॥ (सूत्र ५) ५१९०. पव्वाविओ सिय त्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽणिवारिता दोसा ।। अज्ञात अवस्था में पंडक को प्रव्रजित कर दिया, ज्ञात होने पर मुंडन आदि शेष पंचक' के आचरण के लिए वह अयोग्य होता है। फिर भी यदि उनका समाचरण करता है तो पूर्व के प्रवाजना पद के विषय में जो दोष कहे गए हैं वे अनिवारित होते हैं। ५१९९. मुंडाविओ सिय त्ती, सेसचउक्कं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ यदि वह अज्ञात अवस्था में मुंडित कर लिए जाने पर भी शेष चतुष्क (शिक्षापना आदि) के लिए अयोग्य होता है। यदि उनका आचरण करता है तो पूर्वपद दोष अनिवारित होते हैं। ५१९२. सिक्खाविओ सिय त्ती, सेसतिगस्सा अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपद निवारिया दोसा ।। ५१९३. उवट्ठाविओ सिय त्ती, सेसदुगस्सा अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ ५१९४. संभुंजिओ सिय त्ती, संवासेउं अणायरणजोग्गो । अहवा संवासिंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ ५१९५. मूलातो कंदादी, उच्छुविकारा य जह रसादीया । मिप्पिंड - गोरसाण य, होंति विकारा जह कमेणं ॥ १. पंचक यह हैं- मुंडन, शिक्षण, उपस्थापन, संभुंजन, संवास । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् ५१९६. जह वा णिसेगमादी, गब्भे जातस्स णाममादीया । होंति कमा लोगम्मिं, तह छव्विह कप्पसुत्ता उ॥ यदि उसे शिक्षापित भी कर दिया जाता है तो शेष तीन के लिए अनाचरण योग्य होता है। अथवा उसका आचरण करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं। उपस्थापित करने पर शेष दो पदों के आचरण करने के लिए वह अयोग्य होता है। अथवा समाचरण करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं। सहभोजन करने पर उसके साथ संवास करना (साथ रहना) अनाचरणयोग्य होता है। अथवा संवास करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं । वृक्ष के मूल से कन्द, स्कंध आदि, इक्षुविकार रस कक्क आदि, मृत्पिंड के स्थाश, कोश आदि, गोरस के दधि, नवनीत आदि-ये सारे विकार क्रमशः होते हैं। गर्भ में आए हुए जीव के निषेक आदि तथा नामकरण-चूडाकरण आदि-ये सारे लोक में क्रमशः होते हैं। इसी प्रकार षड् प्रकार के कल्पसूत्र ( प्रव्राजना, मुंडापना आदि) क्रमशः होते हैं। अवायणिज्ज - वायणिज्ज -पदं तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - अविणी, विगईपडिबद्धे, अविओसवियपाहुडे ॥ (सूत्र ६ ) तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - विणीए नो विगईपडिबद्धे, विओसवियपाहुडे ॥ (सूत्र ७) ५१९७. पंडादी पडिकुट्ठा, छव्विह कप्पम्मि मा विदित्तेवं । अविणीयमादितितयं, पवादए एस संबंधो ॥ षड्विध सचित्त द्रव्यकल्प में पंडक आदि तीन प्रतिक्रुष्ट हैं यह जानकर अविनीत, विगयप्रतिबद्ध, कलह को उपशांत न करने वाला - इन तीनों को वाचना न दे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। यह संबंध है। ५१९८. सिक्खावणं च मोत्तुं, अविणियमादीण सेसगा ठाणा । गंता पडिसिद्धा, अयमपरो होइ कप्पो उ॥ अविनीत आदि तीनों को ग्रहणशिक्षा को छोड़कर शेष स्थान एकान्ततः प्रतिषिद्ध नहीं हैं। यह संबंध का दूसरा कल्प - प्रकार है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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