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छठा उद्देशक ग्रहण करने के पश्चात् उसने पूछा-तुम्हारा जन्म कहां हुआ? ६१०१.केणाऽऽणीतं पिसियं, तुम्हारी मां कौन है? पूछने पर उसने कुछ उत्तर नहीं दिया
फरुसं पुण पुच्छिया भणति वाही। तब प्रश्नकर्ता ने समझ लिया कि यह हीन जाति का है।
किं खू तुमं पिताए, अत्यधिक आग्रह करने पर उसने कहा
आणीतं उत्तरं वोच्छं। ६०९५.थाणम्मि पुच्छियम्मि,
एक बार व्याध की पुत्री मांस लेकर आई। कुटुम्बी की __ ह णु दाणि कहेमि ओहिता सुणधा। पुत्री ने पूछा-मांस कौन लाया है ? व्याध पुत्री को पूछने पर साहिस्सऽण्णे कस्स व,
वह परुषवचन में कहती है-क्या तुम्हारा बाप लाया है? इमाइं तिक्खाइं दुक्खाइं॥ कुटुम्बी की पुत्री बोली क्या मेरे पिता व्याध हैं जो मांस उचित स्थान पर तुमने पूछा है, अवधानपूर्वक सुनो, अब लाए? यह लौकिक परुषवचन का उदाहरण है। अब मैं आगे मैं बता रहा हूं, किस दूसरे व्यक्ति के समक्ष मैं मेरे जीवनवृत्त लोकोत्तरिक परुषवचन के विषय में कहूंगा। के तीक्ष्ण दुःखदायी कष्टों को कहूंगा।
६१०२.फरुसम्मि चंडरुद्दो, अवंति लाभे य सेह उत्तरिए। ६०९६.वइदिस गोब्बरगामे, खल्लाडग धुत्त कोलिय त्थेरो।
आलत्ते वाहिते, वावारिय पुच्छिय णिसिटे॥ ___ण्हाविय धणिय दासी, तेसिं मि सुतो कुणह गुज्झं॥ परुषवचन में चंडरुद्र का उदाहरण है। अवन्ती नगरी में
वइदिस नगर के निकट गोबरग्राम में एक धूर्त कोलिक उसे एक शिष्य का लाभ हुआ। वही लोकोत्तरिक परुषवचन खल्वाट स्थविर था। उसकी धन्निका नाम की पत्नी थी। वह एक का उदाहरण है। लोकोत्तरिक परुषवचन की उत्पत्ति के ये नाई की दासी थी। मैं उनका पुत्र हूं।इस बात को तुम गुप्त रखना। पांच स्थान हैं-आलप्त, व्याहृत, व्यापारित, पृष्ट, निसृष्टकिसी के समक्ष प्रकाशित मत करना।
आदिष्ट, जैसे-यह करो, वह करो। ६०९७.जेट्ठो मज्झ य भाया, गब्भत्थे किर ममम्मि पव्वइतो। ६१०३.ओसरणे सवयंसो, इब्भसुतो वत्थभूसियसरीरो।
तमहं लद्धसुतीओ, अणु पव्वइतोऽणुरागेण॥ दायण त चंडरुद्दे, एस पवंचेति अम्हे ति॥ मैं जब गर्भ में था तब मेरा बड़ा भाई प्रवजित हो गया। ६१०४.भूतिं आणय आणीते दिक्खितो कंदिउं गता मित्ता। मैंने जब यह सुना तब भाई के अनुराग से मैं भी उसके बाद वत्तोसरणे पंथं, पेहा वय दंडगाऽऽउट्टो।। प्रवजित हो गया।
उज्जयिनी में रथयात्रा का उत्सव था। वहां 'ओसरण'-- ६०९८.आगारविसंवइयं, तं नाउं सेसचिंधसंवदियं। अनेक मुनि एकत्रित हुए। एक सेठ का लड़का वस्त्रभूषित
णिउणोवायच्छलितो, आउंटण दाणमुभयस्स॥ शरीर वाला अपने मित्रों के साथ वहां आया और साधुओं से यद्यपि मेरे भाई का ऐसा आकार नहीं है-आकार का बोला-मुझे प्रव्रज्या दो। साधुओं ने सोचा-यह हमें धोखा दे विसंवाद है फिर भी जाति आदि के चिह्नों से संवादित है, यह रहा है। उन्होंने उसे चंडरुद्र आचार्य के दर्शन कराए। उस जानकर उसने सोचा-मैं इस साधु के निपुण उपाय से छला। सेठ के लड़के ने आचार्य से कहा-मुझे प्रव्रज्या दो। आचार्य गया हूं। तत्पश्चात् उसने 'मिच्छामि दुक्कडं' पूर्वक दोषों से ने कहा-राख ले आओ। वह राख ले आया। आचार्य ने आवर्तन-उपरमण किया और सूत्र और अर्थ-दोनों की वाचना उसका लुंचन कर दीक्षित कर दिया। उसके मित्र क्रन्दन उसको दी।
करते हुए वहां से चले गए। समवसरण संपन्न हुआ। आचार्य ६०९९.दुविहं च फरुसवयणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं। ने उस नए शिष्य को कहा-मार्ग की प्रतिलेखना करो। हमें
लोउत्तरियं ठप्पं, लोइय वोच्छं तिमं णातं॥ यहां से जाना है। वह मार्ग की प्रतिलेखना कर आ गया तब संक्षेप में परुषवचन के दो प्रकार हैं-लौकिक और आचार्य ने वहां से प्रस्थान कर दिया-आगे शिष्य और लोकोत्तरिक। उनमें लोकोत्तरिक स्थाप्य है-आगे बतायेंगे। पीछे आचार्य। एक स्थान पर शिष्य स्खलित हुआ। लौकिक परुषवचन के विषय में कहूंगा। उसमें यह उदाहरण है। आचार्य ने रुष्ट होकर डंडे से उसे ताड़ित किया। वह शांत ६१००.अन्नोन्न समणुरत्ता, वाहस्स कुडुंबियस्स वि य धूया। रहा। उसने कहा-अब मैं सावधानीपूर्वक चलूंगा। वह उपशम
तासिं च फरुसवयणं, आमिसपुच्छा समुप्पण्णं॥ भाव में लीन हो गया। उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। व्याध और कुटुम्बी की पुत्रियां परस्पर अनुरक्त थीं। दोनों आचार्य उसके उपशमभाव को देखकर स्वयं भी उपशमभाव सखियां थीं। आमिष-मांस की पृच्छा से दोनों के मध्य में लीन हो गए। उसके फलस्वरूप उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त परुषवचन उत्पन्न हुआ। जैसे
हो गया।
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