SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४० = बृहत्कल्पभाष्यम् भिक्षाचर्या के लिए उत्थित एक साधु ने कहा-चलो, ६०९१.गहियं च अहाघोसं, तहियं परिपिंडियाण संलावो। भिक्षा के लिए चलते हैं। उसने कहा-तुम चलो, मैं तो एक अमुएणं सुत्तत्थो, सो वि य उवजीवितुं दुक्खं॥ ही कुल में जाऊंगा। यह कहकर वह अनेक कुलों में जाने एक साधु को गुरु ने जिस घोष से आलाप दिए, उसने लगा तब पूर्व मुनि ने पूछा-यह कैसे? उसने कहा-क्या मैं उसी घोष में ग्रहण किया। वह प्रतीच्छकों को वाचना देता एक शरीर से दो कुलों में प्रवेश कर सकता हूं? था। वहां अन्यत्र एकत्रित साधुओं का परस्पर यह संलाप ६०८७.वच्चह एगं दव्वं, घेच्छं णेगगह पुच्छितो भणती।। होने लगा कि अमुक मुनि के पास से शुद्ध सूत्रार्थ प्राप्त हो गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण णण्णेसि तेणेगं॥ सकता है। किन्तु उनकी सेवा करना बहुत कष्टप्रद है। भिक्षाचर्या के लिए चलने के लिए कहने पर मुनि क्योंकि.......... बोला-आप जाएं। मुझे तो केवल एक ही द्रव्य लेना है। वह ६०९२.जह कोति अमयरुक्खो , घरों में गया और अनेक द्रव्य ग्रहण करने लगा। तब उससे विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। पूछा गया-एक द्रव्य को छोड़कर अनेक द्रव्य कैसे ले रहे ण चइज्जइ अल्लीतुं, हो? उसने कहा-धर्मास्तिकाय आदि छह प्रकार के द्रव्य हैं। एवं सो खिंसमाणो उ॥ उनमें ग्रहणलक्षण वाला केवल पुद्गलास्तिकाय है। मैं केवल कहीं कोई अमृतवृक्ष है। वह विषकंटकवल्ली से उस एक ही द्रव्य को ले रहा हूं। परिवेष्टित है। उसका आश्रय नहीं लिया जा सकता। इसी ६०८८.एमेव य हीलाए, खिंसा-फरुसवयणं च वदमाणो। प्रकार उस खिंसना करने वाले मुनि का आश्रय लेना अत्यंत गारत्थि विओसविते, इमं च जं तेसि णाणत्तं॥ दुष्कर है। इसी प्रकार हीलावचन, खिंसावचन, परुषवचन, ६०९३.ते खिंसणापरद्धा, जाती-कुल-देस-कम्मपुच्छाहिं। गृहस्थवचन तथा व्यवशमित-उदीरणावचन बोलने वाले आसागता णिरासा, वच्चंति विरागसंजुत्ता।। को प्रायश्चित्त जानना चाहिए। उनमें जो नानात्व है वह इस जो उस साधु की उपसंपदा स्वीकार करता है वह सबसे प्रकार है। पहले जाति, कुल, देश और कर्म-व्यवसाय के विषय में ६०८९.आदिल्लेसुं चउसु वि, सोही गुरुगाति भिन्नमासंता।। पूछता है। फिर आगंतुक शिष्य पढ़ने लगते हैं और कहीं पणुवीसतो विभाओ, विसेसितो बिदिय पडिलोमं॥ स्खलित हो जाने पर वह उनकी जाति आदि से खिंसना इन वचनों में प्रथम चार वचनों को बोलने से प्रायश्चित्त है करता है तब वे प्रतीच्छक सोचते हैं हम यहां सूत्रार्थ ग्रहण चतुर्गुरु से भिन्नमास पर्यन्त। आचार्य आचार्य की हीलना करने के आशय से आए थे। परंतु निराश होकर लौट रहे हैं। करता है-चतुर्गुरु, उपाध्याय की चतुर्लघु, भिक्षु की हमें यहां से विरक्ति हो गई है। वे कहते हैंमासगुरु, स्थविर की मासलघु और क्षुल्लक की भिन्नमास। 'दिवासि कसेरुमई, अणुभूया सि कसेरुमई। ये आचार्य के तप और काल से गुरु होते हैं। ये आचार्य के पीयं च ते पाणिययं, वरि तुह नाम न दंसणयं।' पांच संयोग हैं। इसी प्रकार सबके मिलाकर ५४५ पचीस ६०९४.सुत्त-उत्थाणं गहणं, अहगं काहं ततो पडिनियत्तो। भंग हो जाते हैं। वह प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित जाति कुल देस कम्म, पुच्छति खल्लाड धण्णागं॥ होते हैं। द्वितीय आदेश के अनुसार यह प्रायश्चित्त प्रतिलोम एक साधु ने सोचा-'मैं उस मुनि के पास जाकर सूत्र से ज्ञातव्य है। भिन्नमास से प्रारंभ होकर चतुर्गुरु तक रहेगा। और अर्थ ग्रहण करूंगा और मुनि को भी खिंसना दोष से ६०९०.गणि वायए बहुस्सए, मेहावाऽऽयरिय धम्मकहि वादी। मुक्त करूंगा। उसने आचार्य से उस मुनि के विषय में पूछा। अप्पकसाए थूले, तणुए दीहे य मडहे य॥ आचार्य ने कहा-वह मुनि गोबरग्राम में मिलेगा। यह सुनकर हीलितवचन के दो आधार हैं-सूचा या असूचा। सूचा से वह मुनि वहां से प्रतिनिवृत्त होकर गोबरग्राम की ओर गया। जैसे-हम अमुक अमुक नहीं हैं जो उनकी हीलना करें। वहां जाकर उसने उस मुनि के जाति कुल, देश और कर्मअसूचा से जैसे-तुम क्या आचार्य हो? तुम से क्या होना व्यवसाय के विषय में पूछा। लोगों ने कहा-'खल्वाट जाना है आदि। इस प्रकार गणी, वाचक, बहुश्रुत, मेधावी, घन्निका'-एक नापित था। उसके धन्निका नाम की दासी थी। आचार्य, धर्मकथी, वादी, अल्पकषायी, स्थूल, कृश, दीर्घ, वह खल्वाट कोलिक के साथ रहती थी। उसका पुत्र है वह ठिगने आदि सूचा या असूचा से इनकी हीलना करना हीलित । मुनि। यह सुनकर वह उस मुनि के पास जाकर बोला-मैं वचन है। तुम्हारे पास उपसंपदा स्वीकार करना चाहता हूं। उपसंपदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy