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६१०५. तुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं चडगरं करेसि त्ति । किं णिव्वुर्ति ण देसी, केवतियं वा वि रहसि त्ति ।। जो शिष्य आचार्य आदि द्वारा बुलाए जाने पर मौन रहता है, हुंकार करता है, क्या है ? ऐसा कहता है, क्या चटकर करते हो? क्या हमें शांति से रहने नहीं दोगे ? कितनी देर बोलते रहोगे ? - ये सारे परुषवचन के प्रकार हैं। ६१०६. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ इनका प्रायश्चित्त इस प्रकार है-लघुमास, गुरुमास, चार लघुमास, चार गुरुमास, छह लघुमास, छह गुरुमास, छेद, मूल तथा द्विक अनवस्थाप्य और पारांचिक । ६१०७. आयरिएणाऽऽलत्तो,
आयरितो चेव तुसिणितो लहुओ । रडसि त्ति छम्गुरुतं,
मूल
वाहिते गुरुगादि छेदतं ॥ ६१०८.लहुगाई वावारिते, मूलंतं चतुगुरुगाइ पुच्छिए णवमं । णीस छसु पतेसु, छल्लहुगादी तु चरिमंतं ॥ आचार्य ने आहूत किया, दूसरा बोला नहीं, आचार्य को मौन हो जाना पड़ा मासलघु हुंकार आदि से रटसि पर्यन्त कहना षड्गुरु । व्याहृत करने पर तूष्णीक आदि पदों में गुरुमास से छेद पर्यन्त । व्यापारित करने पर चतुर्लघु से पर्यन्त । पृष्ट-पूछने पर चतुर्गुरु से नौवें प्रायश्चित्तअनवस्थाप्य पर्यन्त । निसृष्ट में षड्लघु से चरम प्रायश्चितपारांचिक पर्यन्त ( यह सारा आचार्य द्वारा आचार्य को आलप्स, व्याहृत आदि करने पर प्रायश्चित्त कहा गया है | ) ६१०९. एवमुवज्झाएणं, भिक्खु थेरेण खुट्टएणं च । आलत्ताइपएहिं इक्किक्कपयं तु हासिज्जा ॥ इसी प्रकार आचार्य की भांति उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर तथा क्षुल्लक के साथ आलप्त आदि पदों में तूष्णीकता आदि छह प्रकारों में यथाक्रम एक-एक प्रायश्चित्त पद का हास करे।
६११०. आयरियादभिसेगो, एक्कगहीणो तदिक्किणा भिक्खू । थेरो तु तदिक्केणं, थेरा खुड्डो वि एगेणं ॥ अभिषेक का अर्थ है- उपाध्याय उपाध्याय आचार्य से आलस आदि पदों को करता हुआ प्रायश्चित्त की चारणिका में आचार्य से एक प्रायश्चित्तपद हीन होता है उपाध्याय । उपाध्याय से एक प्रायश्चित्तपद हीन भिक्षु का, उससे एक पदहीन स्थविर का और उससे एक पदहीन क्षुल्लक का।
१.२. विस्तार के लिए देखें-वृ. पृ. १६१५, १६१६ ।
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६१११. भिक्खुसरिसी तु गणिणी,
भिक्खुणि खुडुसरिच्छी,
गुरु लहुपणगाइ दो इयरा ॥ निर्ग्रन्थीवर्ग में भी पांच पद होते हैं-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका । गणिनी अर्थात् प्रवर्तिनी को भिक्षुसदृश माननी चाहिए। अभिषेका को स्थविरसदृश, भिक्षुणी को क्षुल्लकसदृश तथा इतर दो अर्थात् स्थविरा और क्षुल्लिका के यथाक्रम गुरूपंचक आदि और लघुपंचक आदि का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।" ६११२.लहुओ य लहुसगम्मिं,
गुरुगो आगाढ फरूस वयमाणे ।
णिडुर-कक्कसवयणे,
गुरुगा व पतोसओ जं च ॥ लघुस्वक अर्थात् थोड़ा परुषवचन बोलने पर मासलघु, आगाढ़ परुषवचन बोलने पर मासगुरु, निष्ठुर और कर्कश वचन बोलने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। परुषवचन बोलकर प्रद्वेष से जो कुछ किया जाएगा, उसका प्रायश्चित्त भी प्राप्त होगा।
६११३. निव्वेद पुच्छितम्मिं, उन्भामइल त्ति णिडुरं सव्वं । मेहुण संसङ्कं कक्कसाई णिव्वेग साहेति ॥ एक महिला ने किसी साधु से पूछा- किस वैराग्य से तुम प्रब्रजित हुए ? उसने कहा- मेरी पत्नी उद्भ्रामिका - दुःशील थी. इसलिए मैं प्रबजित हो गया यह सारा निष्ठुर वचन है। इस प्रकार मैथुन का संसृष्ट-विलीनभाव देखकर मैं प्रब्रजित हो गया। इस प्रकार अपना निर्वेद - वैराग्य बताना - ये वचन कर्कश माने जाते हैं।
६११४.मयं व जं होइ रयावसाणे,
अंगेसु अंगाई णिगृहयंती, ६११५. सन्दणीसद्वविमुक्ागत्तो,
बृहत्कल्पभाष्यम्
थेरसरिच्छी त होइ अभिसेगा । तु
हीओ मिजं आसि स्यावसाणे,
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तं चिक्कणं गुज्झ मलं झरतं । णिव्वेयमेयं मम जाण सोमे ! ॥
भारेण छिन्नो ससई व दीहं ।
अणेगसो तेण दमं पवण्णो ॥ मेरी भार्या रतिक्रिया के बाद निढाल होकर मृत की भांति हो जाती है। उसके गुह्य प्रवेश से इस प्रकार का मुह्य चिक्कण मल झरता रहता है। तब वह अपने अंगों में अपना अंग छुपाती है। यह मैंने देखा है। हे सौम्ये! यह मेरे निर्वेद
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