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चौथा उद्देशक
५६१ ____ मैं शब्दशास्त्र, हेतुशास्त्र-सन्मति आदि पढ़ता रहा, पृच्छा करता है। अथवा एक पक्ष में सबको पूछता है इसलिए मेरा पढ़ा हुआ छेदसूत्र नष्ट हो गया, विस्मृत हो अर्थात् प्रतिदिन तीनों को पूछता है, जब तक एक पक्ष पूरा गया। यहां इस वसति में अश्रुतार्थ-शैक्ष अथवा अपरिणामक न हो जाए। शिष्य न सुनें, इसलिए हम अन्य वसति में चलें।
५४३६.एतविहिआगतं तू, ५४३२.खित्ताऽऽरक्खिणिवेयण,
पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लगा। _ इयरे पुव्वं तु गाहिया समणा।
अहवा इमेहिं आगत, जग्गविओ सो अ चिरं,
एगागि (दि) पडिच्छणे गुरुगा। जह णिज्जंतो ण चेतेती॥ इस विधि से आए हुए शिष्य को स्वीकार करे। स्वीकार यदि आचार्य वहां से जाना न चाहे तो वे आरक्षिक न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इन एक या अनेक को निवेदन करे कि हमारा एक मुनि क्षिप्तचित्त हो गया कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का है। हम उसे रात में वैद्य के पास ले जायेंगे। आप कुछ न प्रायश्चित्त है। कहें। तथा इतर श्रमणों को पहले ही बता दे कि हम ५४३७.एगे अपरिणए या, अप्पाहारे य थेरए। आचार्य को इस प्रकार यहां से ले जायेंगे। शिष्यों ने
विना शिष्या ने
गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे। उस रात्री में आचार्य को जगाए रखा और जब गहरी वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा नींद आ गई तब उन्हें उठाकर ले गए। उन्हें कुछ भी ज्ञात ____ आचार्य के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य नहीं हुआ।
अल्पाधार वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या ५४३३.निण्हयसंसग्गीए,
बहुरोगी हैं, उनके शिष्य मंदधर्मा हैं। वह शिष्य गुरु से बहुसो भण्णंतुवेह सो कुणइ। कलह कर आया है। तुह किं ति वच्च परिणम,
५४३८.एतारिसं विओसज्ज, विप्पवासो न कप्पई। गता-ऽऽगते णीणिओ विहिणा॥ सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जई।। आचार्य को बहुत बार कहने पर भी वे निहवों के संसर्ग इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन को छोड़ना नहीं चाहते। उस कथन की उपेक्षा करते हैं। वे करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्यशिष्य को कहते हैं-तुम जहां जाना चाहो वहां जाओ। शिष्य तीनों को प्रायश्चित्त आता है। गुरु के परिणाम को जानकर वहां से अन्य गण में जाकर ५४३९.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। शास्त्रों को पढ़कर लौट आता है। फिर विधिपूर्वक आचार्य नाऊण तस्सभावं, होइ उ गमणं अणापुच्छा। को गण से निष्काशित कर देता है।
पहले जो कहा गया कि ज्ञानार्थ जाने वाले को तीन पक्षों ५४३४.एसा विही विसज्जिए,
को पूछ कर प्रस्थान करना चाहिए। प्रस्तुत श्लोक उसका अविसज्जिए लहुग दोस आणादी। आपवादिक है। असंविग्न आचार्य को तथा आगाढ़ कारण में तेसिं पि हुंति लहुगा,
सविग्न आचार्य को बिना पूछे भी जा सकता है। गुरु के भावों अविहि विही सा इमा होइ॥ को जानकर कि ये पूछने पर भी विसर्जित नहीं करेंगे तो वह यह विधि गुरु द्वारा विसर्जित शिष्य के लिए माननी बिना पूछे भी जा सकता है। चाहिए। अविसर्जित अवस्था में जाने वाले शिष्य के लिए ५४४०.चरित्तट्ठ देसे दुविहा, एसणदोसा य इत्थिदोसा य। चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। जो उसको गच्छम्मि य सीयंते, आयसमुत्थेहिं दोसेहिं॥ स्वीकार कर पढ़ाता है उसके भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। चारित्र के लिए गमन दो प्रकार से होता है-देश दोषों यह अविधि है। अतः विधि से जाना चाहिए।
के कारण तथा आत्मसमुत्थदोषों के कारण। देश दोष दो ५४३५.दसणनिते पक्खो, आयरि-उज्झाय-सेसगाणं च। प्रकार के हैं-एषणादोष और स्त्रीदोष। आत्मसमुत्थदोष भी
___ एक्केक्क पंच दिवसे, अहवा पक्खेण सव्वे वि॥ दो प्रकार के हैं-गुरुदोष और गच्छदोष। गच्छ यदि
जो दर्शन के प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए आत्मसमुत्थदोषों से दुःखी है तो गच्छ को एक पक्षकाल जाता है वह आचार्य, उपाध्याय तथा अन्य श्रमणों को तक पूछता है, वहीं रहता है, पूछता है, उसके पश्चात् पांच-पांच दिन प्रत्येक की गणनानुसार एक पक्ष तक अन्य गच्छ में चला जाता है।
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