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तीसरा उद्देशक :
४६१ करना अनाढ़ा है। इसका संस्कृत रूप है-अनादृत। यह ही मत्स्य की भांति अंगों को मोड़कर जाता है, वह भी पहला दोष है। स्तब्ध दो प्रकार के होते हैं
'मत्स्योवृत्त' वन्दनक कहलाता है। यह आठवां दोष है। द्रव्यतः और भावतः। इसकी चतुर्भगी होती है
४४८१.अप्प-परपत्तिएणं, मणप्पदोसो अणेगउट्ठाणो। १. द्रव्यतः स्तब्ध, न भावतः।
पंचेव वेइयाओ भयं तु णिज्जूहणाईयं। २. भावतः स्तब्ध, न द्रव्यतः।
मानसिक प्रद्वेष के अनेक निमित्त होते हैं। वह प्रद्वेष दो ३. दोनों से स्तब्ध।
प्रकार का होता है-आत्मप्रत्ययिक और परप्रत्ययिक। ४. दोनों से स्तब्ध नहीं।
मानसिक प्रद्वेष से किया जाने वाला वंदनक मनःप्रद्विष्ट जो भावतः स्तब्ध है वह अशुद्ध है। जो द्रव्यतः स्तब्ध कहलाता है। यह नौवां दोष है। जानु के ऊपर हाथ रखकर, है, वह विकल्पित है।
नीचे या पार्श्व में या गोद में एक जानु को दोनों हाथों के ४४७७.पविद्धमणुवयारं, जं अप्पिंतो ण जंतितो होति। अन्दर करके वंदनक देना वेदिकाबद्ध वंदनक है। यह दसवां
जत्थ व तत्थ व उज्झति, कतकिच्चो वक्खरं चेव॥ दोष है। गण से निष्काशन के भय आदि से वंदना करना प्रवृद्ध का अर्थ है-उपचाररहित। इसमें गुरु को जो भयवंदनक है। यह ग्यारहवां दोष है। वंदनक अर्पित किया जाता है वह अनियंत्रित होता है। वंदनक ४४८२.भयति भयस्सति व मम, इइ वंदति ण्होरगं णिवेसंतो। देनेवाला वह शिष्य यत्र-तत्र वंदनक को छोड़ देता है जैसे एमेव य मेत्तीए, गारव सिक्खाविणीतोऽहं। 'कृतकृत्य वक्खार की भांति' यत्र-तत्र अपने वक्खार-भांड आचार्य सोचते हैं-यह शिष्य मेरा अनुवर्तन करता है को डाल देता है।
और आगे भी करता रहेगा तब शिष्य वंदना करने में ४४७८.परिपिडिए व वंदइ, परिपिंडियवयण-करणओ वा वि। निहोरक (शर्त) लगा कर वंदना करता है कि आचार्यश्री!
टोलो व्व उप्फिडतो, ओसक्क-हिसक्कणं दुहओ॥ हमारी वंदना को याद रखना यह भजमानवंदनक है। यह परिपिंडित अर्थात् एकत्र मिलित अनेक आचार्यों को एक बारहवां दोष है। मैत्री के आधार पर वंदना करना 'मैत्री साथ एक वंदनक करना। अथवा जिसके वचन और हाथ-पैर वंदनक' है। यह तेरहवां दोष है। गर्व से वंदना करना-गौरव परिपिंडित हैं-अव्यवच्छिन्न हैं, उसके द्वारा किया जाने वाला वंदनक है। वह गर्व से यह प्रज्ञापित करता है कि मैं वंदनक परिपिंडित कहलाता है। यह चौथा दोष है। कभी आगे शिक्षाविनीत हूं। यह चौदहवां दोष है। सरक कर कभी पीछे हटकर टोल की भांति फुदक-फुदक ४४८३.नाणाइतिगं मुत्तुं, कारणमिहलोगसाहगं होइ। कर वंदनक करना-यह पांचवां दोष है।
पूया-गारवहेउं, णाणग्गहणे वि एमेव॥ ४४७९.उवगरणे हत्थम्मि व, चित्तु णिवेसेति अंकुसं बिंति। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिक को छोड़कर शेष सारे
ठित-विट्ठरिंगणं जं, तं कच्छभरिंगियं नाम। कारण इहलोक साधक होते हैं। पूजा और गौरव के लिए आचार्य विश्राम कर रहे थे। शिष्य को वंदना करनी थी। तथा ज्ञान ग्रहण करने के लिए विनय आदि करता है तो वह उसने उनके उपकरण अथवा हाथ को खींच कर आसन पर भी इहलोक साधक ही होता है। यह भी कारण-वंदनक है। बैठने के लिए विवश कर डाला। इस विधि से की जाने वाली यह पन्द्रहवां दोष है। वंदना 'अंकुश' कहलाती है। यह छठा दोष है। आचार्य स्थित ४४८४.आयरतरेण हंदि, वंदामि णं तेण पच्छ पणयिस्सं। हैं अर्थात् खड़े हैं या बैठे हुए हैं, उनको वंदना करने के लिए वंदणग मोल्लभावो, ण करिस्सइ मे पणयभंगं॥ शिष्य उनके सम्मुख रेंगता है, यह कच्छपरिंगित वन्दनक प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त हंदि' शब्द इहलोक साधक कहलाता है। यह सातवां दोष है।
कारण को बताने वाला है। मैं अतिशय आदरपूर्वक वन्दना ४४८०.उटुिंत णिवेसंतो, उव्वत्तति मच्छउ व्व जलमज्झे।। करता हूं, जिससे आचार्य से पश्चात् याचना करूंगा। ये मेरी
वंदिउकामो वऽण्णं, झसो व्व परियत्तती तुरियं॥ प्रार्थना का भंग नहीं करेंगे क्योंकि उनके भाव में-अभिप्राय में जो शिष्य जल के मध्य रहने वाले मत्स्य की भांति वंदनक का ही मूल्य है। उठने-बैठने में उद्वर्तित होता है, उसका वंदनक मत्स्योवृत्त ४४८५.हाउं परस्स चक्खं, वंदंते तेणियं हवइ एतं। कहलाता है। अथवा आचार्य को वंदनक कर जो शिष्य तेणो इव अत्ताणं, गृहइ ओभावणा मा मे॥ समीपस्थ किसी वन्दनाह को वंदना करने के लिए बैठा-बैठा दूसरों की दृष्टि को चुराकर, दूसरे न देख ले इस प्रकार १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९७।
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