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जो वन्दनक देता है वह स्तैन्य वंदना है। वंदना करते समय दूसरों से अपने आपको छुपाता है क्योंकि वह मानता है कि इसमें तो मेरा तिरस्कार है । यह न हो इसलिए वह गुप्तरूप से वंदना करता है। यह सोलहवां दोष है।
४४८६. आहारस्स उ काले, णीहारुभयो य होइ पडिणीयं ।
रोसेण धमधर्मेतो, जं वंदति रुद्रमेयं तु ॥ आहार तथा नीहार के समय या दोनों समय वंदना करना प्रत्यनीक बंदनक है। यह सत्रहवां दोष है। कोच से जाज्वल्यमान होकर वंदनक करना रुष्ट वन्दनक है। यह अठारहवां दोष है।
४४८७. न वि कुप्पसि न पसीयसि, कट्ठसिवो चेव तज्जियं एयं ।
सीसंगुलिमादीहि व तज्जेति गुरुं पणिवयंतो ॥ तुम काष्ठघटित शिव की भांति वंदना न करने पर न रुष्ट होते हो और वंदना करने पर न प्रसन्न होते हो, इस प्रकार तर्जना करता हुआ शिष्य यदि वंदना करता है तो वह तर्जित वंदनक है अथवा गुरु को वंदना करते हुए सिर से तथा अंगुलि आदि से तर्जना करते हुए वंदना देता है तो वह भी तर्जित वंदनक है। यह उन्नीसवां दोष है। ४४८८. वीसंभट्ठाणमिणं, सब्भावजढे सढं
हवइ एतं । कवडं ति कययवं ति य, सढया वि य होंति एगड्डा || यह वंदनक विश्वास का स्थान है। यह वंदनक सद्भाव से शून्य होने पर शठ वंदनक हो जाता है। शठ शब्द के ये पर्यायवाची शब्द हैं-कपट, कैतव, शठता। यह बीसवां दोष है।
४४८९. गणि वायग! जिइज्ज!,
त्ति हीलियं किं तुमे पणमितेण ।
देसीकहवित्तंते,
कधेति दरवंदिए कुंची ॥
गणिन् ! वाचक! ज्येष्ठायें तुमको बन्दना करने से क्या! इस प्रकार हीलना कर वंदना करना हीलित वन्दनक होता है। यह हकीसवां दोष है आधी वंदना कर देशीकथा के वृत्तान्त कहना वह विपरिकुंचित वंदनक है। यह बाईसवां दोष है।
४४९०. अंतरितो तमसे वा, ण वंदती वंदती उ दीसंतो ।
एवं विद्रुमदि, सिंगं पुण कुंभगणिवातो ॥ कुछेक मुनि वंदना कर रहे हों और कोई एक मुनि अन्तरित होकर या अंधकार प्रदेश में व्यवस्थित होकर बैठ जाता है, वंदना नहीं करता और किसी के द्वारा देखे जाने पर वंदना करता है, यह दृष्टादृष्ट वंदनक है। यह तेईसवां दोष है। कुंभ का अर्थ है - ललाट । वंदना करता हुआ जो रजोहरण
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बृहत्कल्पभाष्यम्
से ललाट का स्पर्श नहीं करता वह श्रृंग वंदनक है। यह चौबीसवां दोष है।
४४९१. करमिव मन्नह चिंतो, बंदणगं आरहंतिय कर लि
लोइयकरस्स मुक्का, न मुच्चिमो वंदणकरस्स ॥ वंदनक देता हुआ जो उसे अरहंत का करभाग (टेक्स) मानता है वह 'कर' वंदनक है। यह पचीसवां दोष है। जो यह सोचता है कि हम लौकिक 'कर से मुक्त हो गए, किन्तु वंदनक कर से मुक्त नहीं हुए हैं। यह 'मोचन' वंदनक है। यह बीसवां दोष है।
४४९२. आलिद्रुमणालिने, रयहर सीसे व होति चउभंगो। वयण करणेहिं ऊणं जहन्नकाले व सेसेहिं ॥ आश्लिष्ट और अनाश्लिष्ट-इन दो पदों के आधार पर रजोहरण तथा सिर के विषय में चतुर्भंगी होती है।
१. रजोहरण हाथ से आश्लिष्ट कर सिर को लगाता है। २. रजोहरण को श्लिष्ट करता है, सिर को नहीं । ३. सिर को श्लिष्ट करता है, रजोहरण को नहीं ।
४. न रजोहरण को और न सिर को श्लिष्ट करता है। इसमें पहला विकल्प शुद्ध है। यह सत्ताइसवां दोष है। वचन अर्थात् आलापक तथा करण - अनाम आदि से हीन कर वंदना करना अथवा जघन्यकाल में वंदना समाप्त कर देना या शेष साधुओं द्वारा वंदना कर देने पर फिर बंदना करना यह न्यून बंदनक है। यह अट्ठाईसवां दोष है। ४४९.३. दाऊण बंदणं मत्यरण वंदामि चूलिया एसा
तुसिणी आवत्ते पुण, कुणमाणो होइ मूयं तु ॥ वंदना करने के पश्चात् 'मत्येण वंदामि यह कहना उत्तरचूलिका बन्दनक है। यह उनतीसवां दोष है मौन भाव से आवर्त्तो को करने वाले की वंदना मूक बन्दनक है। यह तीसवां दोष है।
४४९४. उच्चसेरणं वंदर, ढड्ढर एयं तु होइ बोधव्वं ।
चुइलि ब्व गिण्हिऊणं, स्यहरणं होड़ चुड़लीओ ॥ उच्चस्वर से वंदना करना ढहर वंदनक जानना चाहिए। यह इकतीसवां दोष है चुडली (उल्का) की भांति रजोहरण को घुमाते हुए वंदना करना चुडली वंदनक है। यह बत्तीसवां दोष है।
४४९५. थद्धे गारव तेणिय, हीलिय रुट्ठ लघुगा सढे गुरुगो ।
दु पडिणीय तज्जित, गुरुगा सेसेसु लहुगो तु ॥ स्तब्ध, गौरव, स्तेनित, हीलित और रुष्ट - इन वंदनकों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है चतुर्लघु, शठ का है गुरुमास, दुष्ट, प्रत्यनीक और तर्जित का है चतुर्गुरु और शेष का है। मासलघु ।
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