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तीसरा उद्देशक
४४९६. आयरिय-उवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं । उप्परवाडी मासिग, मदरहिए तिण्णि य थुतीओ ॥ सबसे पहले आचार्य और उपाध्याय का कृतिकर्म कर पश्चात् शेष साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए। उत्परिपाटी से वंदना करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वंदनक मदरहित होकर देना चाहिए। अंत में तीन स्तुतियां कहनी चाहिए।
४४९७. जा दुचरिमो त्ति ता होइ वंदणं तीरिए पडिक्कमणे । आइण्णं पुण तिन्हं, गुरुस्स दुण्हं च देवसि ॥ प्रतिक्रमण पूरा होने के पश्चात् अंतिम दो साधु शेष रहें तब तक सभी को वंदना करनी चाहिए, फिर क्षामणक देना चाहिए। यह विधि चौदह पूर्वधर, दशपूर्वधर आदि के काल में थी। वर्तमान में पूर्व आचार्यों द्वारा आचीर्ण यह विधि है - तीन को वंदनक देना चाहिए - एक गुरु और शेष बचे दो पर्याय ज्येष्ठ साधुओं को। यह दैवसिक रात्रिक विधि है। ४४९८. धिइ- संघयणादीणं, मेराहाणिं च जाणिउं थेरा।
सेह-अगीतट्ठा वि य, ठवणा आइण्णकप्पस्स ॥ शिष्य ने पूछामौलिक विधि को बदलने की क्या आवश्यकता है? आचार्य ने कहा- धृति, संहनन आदि तथा मर्यादाहानि को जानकर स्थविर शैक्ष तथा अगीतार्थ मुनियों के लिए आचीर्णकल्प की स्थापना करते हैं। ४४९९.असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्जं ।
ण णिवारियमण्णेहिं य, बहुमणुमयमेतमाइण्णं ॥ जो आचार्य अशठभाव से किसी भी कारणवश (पुष्टालंबन से) असावद्य प्रवृत्ति का आचरण करता है और जो दूसरों से निवारित नहीं है तथा जो बहुजन द्वारा अनुमत है, वह आचीर्ण कहलाता है। वह मान्य होता है। ४५००.वियडण पच्चक्खाणे, सुए य रादीणिगा वि हु करिंति ।
मज्झिल्ले न करिती, सो चेव करेइ तेसिं तु ॥ आलोचना तथा प्रतिक्रमण के समय तथा श्रुतदान आदि रानिक मुनि भी अवमरात्निक आचार्य को वंदना करते हैं। किंतु मध्य में जो क्षामणकवंदनक है, वह नहीं करते। आचार्य ही उन रात्निकों का करते हैं।
४५०१. थुइमंगलम्मि गणिणा, उच्चारिते सेसगा थुती बेंति ।
पम्हुमेरसारण, विणयो य ण फेडितो एवं ॥ जब गणी स्तुतिमंगल का उच्चारण कर लेते हैं तब शेष साधु स्तुति बोलते हैं। फिर मुनि गुरुचरणों में बैठ जाते हैं। यदि मर्यादा - सामाचारी शिष्य भूल गए हों तो गुरु उसकी स्मृति कराते हैं। गुरु के उपपात में बैठने से शिष्यों का विनय को भी त्यक्त नहीं होता ।
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४५०२. अन्नेसिं गच्छाणं, उवसंपन्नाण वंदणं
तहियं ।
बहुमाण तस्स वयणं, ओमे वाऽऽलोयणा भणिया ।। अन्यान्य गच्छों के आचार्य सूत्रार्थ के निमित्त किसी अवमरात्निक आचार्य के पास उपसंपन्न होते हैं तो मध्यम वन्दनक अवमरात्निक को करना चाहिए तथा आगत रात्निक आचार्य को उस अवमरात्निक आचार्य का वचनों के द्वारा बहुमान करते हुए कहना चाहिए- ये हमारे पूज्य हैं, गुणाधिक हैं आदि। अवमरात्निक आचार्य आलोचना दे। यह भगवान् ने कहा है।
४५०३. सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं बाहिराण भयितव्वं ।
सुत्त - Sत्थजाणएणं कायव्वं आणुपुव्वी ॥ संयमश्रेणी के स्थानों में स्थित मुनियों का कृतिकर्म करना चाहिए। जो संयमश्रेणी के स्थानों से बाह्य हैं उनका कृतिकर्म विकल्पनीय है । सूत्रार्थ के ज्ञाता अर्थात् गीतार्थ मुनि को अनुपूर्वी (गाथा ४५४५) से कृतिकर्म करना चाहिए। ४५०४. सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं सेढि इच्छिमो गाउं ।
- तम्हा खलु सेढीए, कायव्व परूवणा इणमो ॥ शिष्य कहता है - संयमश्रेणी स्थान में स्थित साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए, यह जो आपने कहा, हम सबसे पहले उस श्रेणी को जानना चाहते हैं। आचार्य कहते हैंइसलिए हमें श्रेणी की प्ररूपणा करनी चाहिए। वह यह है४५०५. पुव्वं चरित्तसेढीठियस्स पच्छाठिएण कायव्वं ।
सो पुण तुल्लचरित्तो, हविज्ज ऊणो व अहिओ वा ॥ पहले जो सामायिक संयम या छेदोपस्थापनीय संयम में स्थित है उसका कृतिकर्म पश्चात्वर्ती संयमस्थित मुनि को करना चाहिए। संयमश्रेणी में पूर्वस्थित मुनि पश्चात् स्थित मुनि की अपेक्षा से तुल्यचरित्रवाला अथवा न्यून या अधिक हो सकता है।
४५०६.निच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो ।
ववहारओ य कीरs, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि ॥ निश्चयपूर्वक यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव अर्थात् चारित्र के अध्यवसाय में वर्तन कर रहा है, तो फिर कृतिकर्म का आधार क्या है? आचार्य कहते हैंव्यवहारनय को स्वीकार कर चारित्र में जो पहले स्थित है उसको कृतिकर्म किया जाता है।
४५०७. ववहारो विहु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा ।
जा होइ अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एयं ॥ व्यवहार भी बहुत बलवान् होता है। अर्हत् अर्थात् केवली भी छद्मस्थ गुरु आदि को वंदना करते हैं। प्रश्न होता है कि वे कब तक वंदना करते हैं ? जब तक वे केवली के रूप में
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