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________________ ४२४ = =बृहत्कल्पभाष्यम् मुरुंड राजा का हाथी वाली हो तो भी उसका परित्याग नहीं करना चाहिए। कुसुमपुर नगर के राजा मुरुंड की बहिन विधवा थी। शय्यातर या स्वयं उसकी यथोचित क्रिया संपादित करनी उसने एक दिन राजा से पूछा-मैं कहां प्रव्रजित होऊं? तब चाहिए। राजा पाषंडियों का वेश ग्रहण कर उसकी परीक्षा करनी ४१३०.विहिणिग्गता उ एक्का, गोयरियाए गहिता गिहत्थेहिं। चाही। उसने अपने महावतों को आदेश दिया कि कुसुमपुर संवरियपभावेण य, फिडिया अविराहियचरित्ता।। में पाषंडियों की स्त्रियों की धर्षणा करो। उनसे एक कोई आर्या उपाश्रय से विधिपूर्वक निर्गमन कर कहो-राजाज्ञा है। सभी स्त्रियां कपड़ों को उतारकर यहां गोचरचर्या में घूम रही है। गृहस्थों ने उसे पकड़ लिया। रख दो, अन्यथा हाथी के पैरों तले कुचल दी जाओगी। भय उसके सुप्रावरण के प्रभाव से गृहस्थ उसके चारित्र की-शील के कारण वे सभी स्त्रियां अपने कपड़े उतार कर नग्न हो की विराधना नहीं कर सके। वह वहां से छिटक गई। गईं। इतने में ही एक साध्वी राजपथ पर आ गई। महावत ४१३१.लोएण वारितो वा, दह्रण सयं व तं सुणेवत्थं। ने उससे भी कपड़े उतारने के लिए कहा। साध्वी ने एक सुद्दिलु तुवसंतो, सविम्हओ खामयति पच्छा। एक कर सारे बाह्य कपड़े उतार दिए। जब वह (नटी की एक व्यक्ति आर्या को धर्षित कर रहा था तब लोगों ने भांति) कंचुकी आदि से सुप्रावृत दीखी तब लोगों ने उसे वारित किया अथवा स्वयं उसने आर्या को सुप्रावृत आक्रन्द किया और धिक्कार करते हुए हाहाकार किया और देखकर, इनका धर्म सुदृष्ट है ऐसा सोचकर वह उपशांत महावत की तर्जना की। गवाक्ष में बैठे राजा ने यह सारा हो गया और आश्चर्यचकित होकर उसने आर्या से दृश्य देखा, महावत की निवारणा की। तब राजा ने क्षमायाचना की। अपनी विधवा बहिन को अर्हत् तीर्थ में प्रव्रजित होने की ४१३२.णाभोग पमादेण व, असती पट्टस्स णिग्गया गहणे। अनुज्ञा दी। विहिणिग्गतमाहच्च व, बाहाडितधाडणे गुरुगा। ४१२७.पाए वि उक्खिवंती, न लज्जती पट्टिया सुणेवत्था। कोई आर्या अनाभोग अर्थात् अत्यन्त विस्मृति अथवा उच्छूरिया व रंगम्मि लंखिया उप्पयंती वि॥ प्रमाद के कारण अथवा अवग्रहपट्ट के अभाव में भिक्षा के जैसे सुनेपथ्य वाली नर्तकी पैरों को ऊपर उछालती हुई। लिए निर्गत हुई, इस प्रकार किसी ने उसे पकड़ लिया, भी लज्जित नहीं होती तथा नटिनी रंगभूमी में अनेक प्रकार अथवा विधिपूर्वक निर्गत आर्या को कदाचित् किसी ने पकड़ के करतब दिखाती हुई भी यदि 'उच्छूरित'-सुप्रावृत होती है लिया तो गुरु के पास आकर निवेदन करना चाहिए। तो लज्जित नहीं होती, इसी प्रकार आर्या भी सुप्रावृत होने वह यदि प्रसवधर्मा हो गई हो और कोई यदि उसे पर लज्जित नहीं होती। निष्काशित कर देता है तो उसे चतर्गरु का प्रायश्चित्त प्राप्त ४१२८.कयलीखंभो व जहा, उव्वेल्लेउं सुदुक्करं होति। होता है। ___इय अज्जाउवसग्गे, सीलस्स विराहणा दुक्खं॥ ४१३३.निज्जूढ पदुट्ठा सा, भणेइ एतेहिं चेव कतमेतं। जैसे बहुलपटल वाले कदली स्तम्भ के पटलकों को राय-गिहीहि सयं वा, तं च पसासंति मा बितियं॥ उधेड़ने में अत्यंत कष्ट होता है, वैसे ही अनेक उपकरणों से निष्काशित होकर वह साधुसंघ के प्रति प्रद्विष्ट हो प्रावृत आर्यिका को उपसर्गित करने वाले व्यक्ति के लिए सकती है और कहने लगती है कि इन साधुओं ने ही मेरे उसके शील की विराधना करना दुष्कर होता है। साथ ऐसा किया है। जिस व्यक्ति ने उस आर्या के साथ ऐसा ४१२९.एक्का मुक्का एक्का य धरिसिया अनर्थ किया है, राजा उस पर अनुशासन करता है या गृहस्थ णिवेदण जतणाय होति कायव्वा। उसे शिक्षा देते हैं या आचार्य यदि समर्थ हों तो वे स्वयं बाहाड न जहितव्वा, उस व्यक्ति पर शासन करते हैं, जिससे कि वह पुनः ऐसा सेज्जतरादी सयं वा वि॥ एक कोई आर्या सुप्रावत होकर विधिपूर्वक उपाश्रय से निर्गत हुई। वह दूसरों द्वारा गृहीत होने पर भी मुक्त हो गई। सब्भावे सिं कहिते, सारिती जा थणं पियती॥ दूसरी आर्या विधिपूर्वक निर्गत न होने के कारण धर्षित हो वह प्रसूता साध्वी दो प्रकार की होती है-ज्ञातगर्भवाली गई। सभी आर्यिकाएं यतना को नहीं जानतीं, इसलिए गुरु और अज्ञातगर्भवाली। जो अज्ञातगर्भा है उसे अगीतार्थ मुनि को निवेदन करना चाहिए। यदि वह धर्षित आर्या प्रसव करने न जान पाए ऐसे संज्ञी गृहस्थों के कुलों में स्थापित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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