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तीसरा उद्देशक =
= ४२३ व्यक्ति एकत्रित हो जाते हैं। जो आर्या एक वस्त्र धारण कर होने पर भी शीलरहित और लज्जाहीन हो तो वह शोभित निर्गमन करती है वह शीघ्र ही संयम से भ्रष्ट हो जाती है। नहीं होती।) ४११५.उव्वेल्लिए गुज्झमपस्सतो से,
४११९.पट्टड्ढोरुय चलणी, अंतो तह बाहिरा णियंसणिया। हाहक्कितस्सेव महाजणेणं। संघाडि खुज्जकरणी, अणागते चेव सतिकाले॥ धिद्धि त्ति ओथुक्ति-तालियस्सा,
पट्ट, अधोरुक, चलनिका, अंतर्निवसनी और बहिर्निवसनी पत्तो समं रणदवो व वेदो॥ संघाटिका, कुब्जकरणी आदि उपकरणों से भिक्षा-काल से विधियुक्त निर्गमन करने वाली आर्या को यदि कोई पहले ही आर्या को प्रावृत रहना चाहिए। उद्वेलित करता है, बाह्य वस्त्रों को अपसृत कर देता है ४१२०.उग्गहणमादिएहिं, अज्जाओ अतुरियाउ भिक्खस्स। परन्तु जब तक वह आर्या के गृह्य प्रदेश को नहीं देख लेता . जोहो ब्व लंखिया वा, अगिण्हणे गुरुग आणादी॥ तब तक आर्या द्वारा हाहाकार करने पर, महाजनों द्वारा उस साध्वियां भिक्षा के लिए अनातुर रहती हुई अवग्रहान्तक व्यक्ति को ओथुक्कित-अत्यन्त धिक्कार दिए जाने पर तथा आदि उपकरणों से स्वयं को भावित रखती है। जैसे योद्धा ताड़ित किए जाने पर, उस व्यक्ति का मोहोदय अरण्य के संग्राम के लिए जाते समय कवच आदि से सुसन्नद्ध होता है दावानल की भांति शांत हो जाता है।
तथा नटिनी रंगभूमी में प्रवेश करने से पूर्व अपने आपको ४११६.तत्थेव य पडिबंधो,पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि।। सुसज्जित करती है वैसे ही आर्या भी अवग्रहान्तक आदि
डिंडी य बंभचेरे, विधिणिग्गमणे पुणो वोच्छं॥ से सुप्रावृत होकर उपाश्रय से बाहर निकलती है। ऐसा न वह साध्वी जिस कारण से (अविधिनिर्गमन आदि) धर्षित करने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होती है उसी के प्रति अनुरक्त हो जाती है और वह प्रतिगमन प्राप्त होते हैं। आदि जितने स्थानों का सेवन करती है, उनसे निष्पन्न ४१२१.जोहो मुझंडजड्डो, णाडइणी लंखिया कतलिखंभो। प्रायश्चित्त प्रवर्तिनी को वहन करना पड़ता है। यदि वह आर्या
अज्जाभिक्खग्गहणे, आहरणा होति णायव्वा।। ऋतुसमय में गृहीत हो तो डिंडिमबंध हो सकता है। ब्रह्मचर्य आर्या के भिक्षाग्रहण के समय जिन उपकरणों का प्रावरण की विराधना तो होती ही है। विधियुक्त निर्गमन करने के होता है, तत्संबंधी पांच उदाहरण हैं-१. योद्धा २. मुरुंड अनेक गुण कहूंगा।
राजा का हाथी ३. नर्तकी ४. नटिनी ५. केले का तना। ४११७.न केवलं जा उ विहम्मिआ सती,
४१२२.वणिओ पराजितो मारिओ व संखे अवम्मितो जोहो। सवच्चतामेति मधूमुहे जणे। सावरणे पडिपक्खो, भयं च कुरुते विवक्खस्स॥ उवेति अन्ना वि उ वच्चपत्ततं,
जो योद्धा संग्राम में अवर्मित होकर जाता है, वह व्रणित, अपाउता जा अणियंसिया य॥ पराजित होता है या मारा जाता है। और जो योद्धा इसके केवल वही आर्या जो शीलव्रत से च्यावित कर दी गई है, प्रतिपक्ष में अर्थात् वर्मित होकर संग्राम में प्रवेश करता है वह मधुमुख-दुर्जन लोगों में सवाच्यता-कलंकित नहीं होती न व्रणित होता है और न पराजित होता है और न मारा जाता किन्तु अन्य साध्वियां भी 'वाच्यपात्रता'-निन्दनीय योग्यता है। प्रत्युत वह शत्रुओं के लिए भय पैदा करता है। इसी को प्राप्त होती हैं। तथा लोग उनको भी कलंकित करते हैं जो प्रकार आर्या भी उचित उपकरणों से प्रावृत हुए बिना निर्गमन साध्वियां अप्रावत और जो अनिवसित-सही ढंग से कपड़े करती है तो वह तरुणों द्वारा उपद्रुत होती है। सुप्रावृत आर्या पहने हुए न हों।
उनके लिए अगम्य होती है। ४११८.ण भूसणं भूसयते सरीरं,
४१२३.विहवससा उ मुरुंडं, आपुच्छति पव्वयामऽहं कत्थ। ___ विभूसणं सील हिरी य इत्थिए। पासंडे य परिक्खति, वेसग्गहणेण सो राया।। गिरा हि संखारजुया वि संसती,
४१२४.डोंबेहिं च धरिसणा, माउग्गामस्स होइ कुसुमपुरे। अपेसला होइ असाहुवादिणी॥ उब्भावणा पवयणे, णिवारणा पावकम्माणं ।। कोई आभूषण शरीर को भूषित नहीं करते। स्त्रियों का ४१२५.उज्झसु चीरे सा यावि णिवपहे मुयति जे जहाबाहिं। आभूषण है शील और लज्जा। संस्कारयुक्त वाणी भी यदि उच्छूरिया णडी विव, दीसति कुप्पासगादीहिं। सभा में असाधुवादिनी होती है तो वह शोभित नहीं होती। ४१२६.धिद्धिक्कतो य हाहक्कतो य लोएण तज्जितो मेंठो। (इसी प्रकार स्त्री भी यदि विविध आभूषणों से भूषित
ओलोयणहितेण य, णिवारितो रायसीहेण।
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