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________________ ४२२ = बृहत्कल्पभाष्यम् ४१०६.भिक्खाइ गयाए निग्गयं, जो नटिनी रंगस्थान-नाट्यस्थान में काम करना चाहती रुहिरं दट्ठमसंजता वदे। है, वह प्रारंभ में घर के मध्य लज्जा से अभिनय करती है धिगहो! बत! केणऽयं जणो, और जब कालान्तर में उसकी लज्जा निकल जाती है तब दोसमिणं असमिक्ख दिक्खिओ॥ वह लज्जारहित होकर लोगों के मध्य हावभाव दिखाती हुई भिक्षा के लिए गई हुई साध्वी के रुधिर को प्रसृत होते नर्तन करती है। (उसी प्रकार आर्या भी उपाश्रय में लज्जावश हुए देखकर असंयत व्यक्ति कहते हैं लोगो! देखो, देखो, सुप्रावृत होकर भिक्षाटन करने निकलती है। परंतु तरुणों को किसने स्त्रियों के इस दोष को देखे बिना, उसकी समीक्षा देखकर सहज ही लज्जा को जीत लेती है।) किए बिना, इनको दीक्षित कर डाला। ४१११.असईय णंतगस्स उ, ४१०७.छक्कायाण विराहण, पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि। पणवण्णुत्तिण्णिगा व ण उ गिण्हे। तब्भाव पिच्छिऊणं, बितियं असती अहव जुण्णा।। निग्गमणं पुण दुविहं, तथा शोणित के परिगलित होने पर छह काय की विधि अविही तत्थिमा अविही॥ विराधना होती है। वह साध्वी प्रतिगमन के जो स्थान हैं उनमें अवग्रहान्तक के अभाव में पचपन वर्षों को पार कर चुकी प्रतिगमन करने से प्रवर्तिनी को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आर्या अवग्रहान्तक आदि को ग्रहण न करे तो भी कोई शोणित के परिगलन भाव को देखकर तरुण व्यक्ति उपसर्ग आपत्ति नहीं है। भिक्षा के लिए निर्गमन के दो प्रकार कर सकते हैं। इसमें अपवादपद यह है कि यदि अवग्रहान्तक हैं-विधियुक्त और अविधियुक्त। अविधि यह हैऔर पट्टक न हो अथवा साध्वी वृद्ध हो तो उनको ग्रहण न ४११२.उग्गहमादीहि विणा, भी करे। दुणियत्था वा वि उक्खुलणियत्था। ४१०८.दिटुं अदिट्ठव्व महं जणेणं, एक्का दुवे य अविही, लज्जाए कुज्जा गमणाइगाई। चउगुरु आणा य अणवत्था॥ लज्जाए भंगो व हवेज्ज तीसे, अवग्रहान्तक के बिना भिक्षा के लिए जाना, उचितरूप के लज्जाविणासे व स किं न कुज्जा ॥. कपड़े न पहनना, कपड़े पहनने में विधि का पालन न करना, साध्वी सोचती है-जनता ने जो मेरा अद्रष्टव्य था उसे एक या दो आर्याओं का इस प्रकार भिक्षा के लिए जाना यह देख लिया है, अतः अब मैं यहां नहीं रह सकती, यह सारी अविधि है। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग सोचकर वह लज्जावश प्रतिगमन आदि कर लेती है। अथवा तथा अनवस्था दोष प्राप्त होता है। उस आर्या के लज्जा का भंग हो जाने पर वह क्या अनर्थ नहीं ४११३.मिच्छत्त पवडियाए, वाएण व उद्ध्यम्मि पाउरणे। कर सकती? गोयरगया व गहिया, धरिसणदोसे इमे लहति॥ ४१०९.तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा, कोई साध्वी अवग्रहान्तक आदि के बिना भिक्षा के लिए पेल्लेज्ज सज्जेज्ज व सा वि तत्थ। जाती है और आकस्मिकरूप में मूर्छा से नीचे गिर जाती है। तं लोहियं वा वि सरक्खमादी, उसका प्रावरण हवा से उड़कर अस्त-व्यस्त हो जाता है। विज्जा समालब्भऽभिजोययंति॥ तब उसको अपावृत देखकर लोग मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते उस रुधिर के परिगलनरूप भाव को देखकर कुछेक हैं। गोचराग्र गई हुई किसी आर्या को विट ग्रहण कर लेता है तरुणों के कर्मों की उदीरणा होती है और तब वे उस साध्वी तब वह इन धर्षणदोषों को प्राप्त होती है। (वे दोष ४११६को प्रतिसेवना के लिए प्रेरित करते हैं। तब वह साध्वी भी ४११८ में बताए जायेंगे।) उनसे संग करती है, प्रतिसेवना करती है। अथवा उस ४११४.अड्डोरुगा-दीहणियासणादी, रक्तरंजित साध्वी को कापालिक आदि प्राप्त कर विद्याप्रयोग सारक्खिया होति पदे वि जाव। से उसे वश में कर लेते हैं। तिण्हं पि बोलेण जणोऽभिजातो, ४११०.अंतो घरस्सेव जतं करेती, एक्कंबरा खिप्पमुवेति णासं॥ जहा णडी रंगमुवेउकामा। विधियुक्तगमन के गुण ये हैं-जो आर्या अधोरुक तथा लज्जापहीणा अह सा जणोघं, दीर्घवस्त्र से सुप्रावृत होती है, वह प्रत्येक स्थान पर संरक्षित संपप्प ते ते पकरेति हावे॥ होती है। तथा तीन आर्याओं के चिल्लाने से अभिजात-शिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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