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तीसरा उद्देशक:
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प्रकार का संस्तारक-शुषिर और अशुषिर, दंडादिपंचक (दंडक, विदंडक, यष्टि, वियष्टि और नालिका), मात्रकत्रिक (खेलमात्रक, प्रस्रवणमात्रक, उच्चारमात्रक), पादलेखनिका, चर्मत्रिक (कृत्ति, तलिका, वध्र), पट्टद्विक-(संस्तारपट्ट तथा उत्तरपट्ट) यह साधुओं की मध्यम उपधि है। आर्याओं के भी यही मध्यम उपधि है। उनके वारक अतिरिक्त होता है। ४०९९.अक्खा संथारो या, दुविहो एगंगिएतरो चेव।
पोत्थगपणगं फलगं, बितियपदे होति उक्कोसो॥ उत्कृष्ट उपधि यह है-अक्ष-गुरु जब अनुयोग देते हैं तब उसके भंगों की चारणिका के लिए काम आने वाला उपकरण, दो प्रकार के संस्तारक-एकांगिक और इतर, पुस्तकपंचक और फलक-यह उत्कृष्ट औपग्रहिक उपधि है।
मवाद, रसी-पीव रक्त आदि बहता हो तो उड्डाह, स्वाध्याय
और दया के निमित्त मुनि अवग्रहान्तक और पट्टक बांधता है। यह अपवाद पद है। ४१०३.पूय-लसिगा उवस्सए,
धोव्वति असहुस्स पट्टो रुहिरं च। उग्गह पट्टं च सहू,
वीयारे लोहियं धुवति॥ पूत और रसी-मवाद और पीव से अस्वाध्यायिक नहीं होता, अतः उसका प्रक्षालन उपाश्रय में ही किया जाता है। यदि भगंदर का रोगी बाहर जाने में असमर्थ हो तो उसका पट्ट और रुधिर उपाश्रय में मात्रक में धोकर वह पानी उपाश्रय में दूर फेंका जाता है। यदि वह बाहर जाने में समर्थ हो तो विचारभूमी में जाकर वह स्वयं अवग्राहान्तक और रुधिर का प्रक्षालन करता है। ४१०४.ते पुण होति दुगादी, दिवसंतरिएहिं बज्झए तेहिं।
अरुगं इहरा कुच्छइ, ते वि य कुच्छंति णिच्चोला। अवग्रहान्तक और पट्ट दो, तीन आदि रखने चाहिए जिससे कि उसका उपयोग दिवसान्तर-एक दिन छोड़कर दूसरे दिन किया जा सकता है, उनसे व्रण बांधा जा सकता है। प्रतिदिन यदि एक ही पट्ट बांधा जाता है तो वह व्रण कुथित हो जाता है तथा वे पट्ट आदि भी सदा आर्द्र रहकर कुथित हो जाते हैं।
उग्गहवत्थ-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए
वा॥
(सूत्र ११)
कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥
(सूत्र १२)
४१००.उभयम्मि वि अविसिटुं, वत्थग्गहणं तु वण्णियं एयं। ___ जं जस्स होति जोग्गं, इदाणि तं तं परिकहेति॥
दोनों सूत्रों-भिन्न और अभिन्न में अविशिष्ट प्रतिपादन है-यह साधुओं को कल्पता है और यह नहीं, ऐसा उल्लेख नहीं है। पहले सूत्र में वस्त्रग्रहण वर्णित है। अब जिसके जो योग्य है, उसके लिए उस उसका परिकथन किया जाता है। ४१०१.निग्गंथोग्गहधरणे, चउरो लहुगा य दोस आणादी।
___ अतिरेगउवहि तह लिंगभेद बितियं अरिसमादी।
यदि निर्ग्रन्थ अवग्रहान्तक और पट्ट को धारण करते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होता है। वह अतिरिक्त उपधि होने के कारण अधिकरण भी हो सकता है। तथा लिंगभेद होता है-साध्वी का लिंग धारण किए हुए के समान होता है। द्वितीयपद अर्थात् अपवादपद के अर्श आदि रोग के समय अवग्रहान्तक और पट्टक को धारण किए के समान होता है। ४१०२.भगंदलं जस्सऽरिसा व णिच्चं,
गलंति पूर्य लसि सोणियं वा। उड्डाह-सज्झाय-दयाणिमित्तं,
सो उग्गहं बंधति पट्टगं च॥ जिसके भगन्दर या अर्श हो और जिनसे नित्य पूत-
४१०५.निग्गंथीण अगिण्हणे,चउरो गुरुगा य आयरियमादी।
तच्चण्णिय ओगाहण, णिवारणऽण्णेसि ओहसणं॥ यदि साध्वियां अवग्रहान्तक और पट्टक ग्रहण नहीं करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य प्रस्तुत सूत्र का कथन प्रवर्तिनी को नहीं करते हैं, प्रवर्तिनी आर्याओं को नहीं करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि आर्यिकाएं इसको स्वीकार नहीं करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। अवग्रहान्तक और पट्टक का उपयोग न कर, भिक्षा के लिए गई हुई साध्वी के तच्चन्निक-रुधिर प्रसृत हो गया। अन्य दिवसों में अवग्रहान्तक और पट्टक के कारण वह प्रसृत नहीं हुआ, परन्तु उस दिन प्रसृत रुधिर को देखकर लोग उपहास करने लग जाते हैं।
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