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तीसरा उद्देशक
उन श्रावकों को वस्तुस्थिति से अवगत करा दिया जाता है। वे उसकी पालना तब तक करते हैं जब तक उसके द्वारा प्रसूत शिशु स्तन्यपान करता है। ४१३५. जत्य उ जणेण णातं,
उवस्सए चेव तत्थ ण य भिक्खं ।
किं सक्का छड्डेउ,
बेंति अगीते असति सहे ।
जनता ने जिसके गर्भ को जान लिया उस आर्या को उपाश्रय में ही रखा जाता है। उसे भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता अन्य साध्वियां उसका पोषण करती हैं। अगीतार्थ कहते हैं - ऐसे संग्रह से क्या प्रयोजन ? आचार्य कहते हैं-क्या उस स्थिति में उसको छोड़ना शक्य हो सकता है? यदि वे अगीतार्थ इसे स्वीकार नहीं करते तो श्रावकों को प्रज्ञापित करते हैं।
४१३६. दुरतिक्कमं खु विधियं,
अवि य अकामा तवस्सिणी गहिता । को जाणति अण्णस्स वि,
हवेज्ज तं सारवेमो णं ॥ यह स्थिति दुरतिक्रम है। क्योंकि किसी दुरात्मा ने आर्या के साथ ऐसा अनर्थ कर डाला। उसके न चाहने पर भी बलात् उस पापात्मा ने उस तपस्विनी आर्या के साथ ऐसा कुकर्म कर डाला तो कौन जान सकता है कि अन्य आर्या के साथ भी ऐसा वृत्तान्त न हो। इसलिए वर्तमान में हम इस आर्या की परिपालना करते हैं।
४१३७. माय अवण्णं काहिह, किं ण सुतं केसि - सच्चईणं भे ।
जम्मं ण य वयभंगो, संजातो तासि अज्जाणं ॥ इस आर्या की अवज्ञा न करें। क्या केशि और सत्यकी के जन्म के विषय में नहीं सुना ? उन दोनों आर्याओं का व्रतभंग भी नहीं हुआ।"
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४१३८. अवि य हु इमेहिं पंचहिं, ठाणेहिं थी असंक्रांती वि। पुरिसेण लभति गन्धं लोएण वि गाइयं एयं ॥ इन पांच स्थानों से स्त्री पुरुष के साथ असंवास करती हुई भी गर्भ को धारण करती है। हम ही ऐसा नहीं कहते लोग भी यही कहते हैं।
४१३९. दुव्वियड- दुण्णिसण्णा,
वत्थे वा संसट्टे,
सयं परो वा सि पोग्गले छुभति ।
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वे पांच स्थान ये हैं
१. नग्न अवस्था में विरूपतया उपविष्ट स्त्री, पुरुष द्वारा निसृष्ट आसनस्थ शुक्रपुद्गलों को ग्रहण करने
पर ।
२. स्वयं शुक्रपुद्गलों को योनि में प्रवेश कराने पर ३. दूसरा कोई उसकी योनि में शुक्रपुद्गलों का प्रक्षेप करने पर ।
४. शुक्रपुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र का योनि से स्पृष्ट हो
पर ।
५. पूर्वपतित शुक्रपुद्गल युक्त पानी से आचमन (शौच ) करने पर।
वे पुद्गल योनि में प्रवेश कर लेते हैं। ४१४०. अविदिय जण गब्भम्मि य,
लार्केति फासूपणं,
लिंगविवेगो य जा पिवति ॥
लोगों को आर्या के गर्भ की जानकारी न होने पर आचार्य उस आर्या को श्रावक, यथाभद्रक गृहस्थों के घर में, उसी गांव में या अन्यत्र ग्राम में स्थापित करते हैं। वे श्रावक आदि उस आर्या का प्रासुक अन्न-जल से निर्वाह करते हैं। जब तक प्रसूत संतति स्तन्यपान करती है तब तक उस आर्यों का लिंगविवेक कर देना चाहिए।
सणीमादीसु तत्थ वऽण्णत्था ।
४१४१. एएसिं असतीए, सण्णायम णालबद्धकित फासुं।
अण्णो वि जो परिणतो, स सिद्धवेसेतरीऽगारी ॥ यदि गांव में श्रावक आदि न हों तो आर्या को उसके संज्ञातक के घर में रखा जाए। यदि वहां संज्ञातक भी न हो तो जो नालबद्ध वृद्ध मुनि हो तो उसको श्रावक का वेष धारण कराकर, आर्या को गृहस्थ वेश कराकर दोनों साथ रहे और प्रासुक आहार पानी से निर्वाह करे। यदि नालबद्ध संयत न हो तो अन्य गृहस्थ जो परिणत हो, उसे सिद्धपुत्रवेश धारण कराकर, आर्या को गृहस्थ वेश धारण कराकर स्थापित करे।
४१४२. मूलं वा जाव थणा, छेदो छम्गुरुग जं च धालहुअं
वितियपदे असतीए, उवस्सए वा अहव जुण्णा ॥ यदि वह आर्या प्रतिसेवना काल में हर्षित हुई हो तो मूल, गर्भ रहा है यह जानकर प्रसन्न हुई हो तो छेद, अपत्य हुआ है, यह जानकर हर्षित हुई हों तो षदगुरु प्रायश्चित्त आता है। यदि वह किसी भी स्थिति में हर्षित
दगआयमणेण वा पविसे ॥
१. इनकी कथानक पंचकल्प और आवश्यक टीका में है। -दो आर्यिकाओं से इनका जन्म हुआ। आर्याओं ने पुरुष का संवास नहीं किया। फिर भी संयोगवश शुक्रबीज योनि में प्रविष्ट हुआ और दोनों ने प्रसव कर डाला ।
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