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________________ तीसरा उद्देशक शैक्ष कहा जाता है। अपूर्व उपधियुक्त शैक्ष को देखकर, अऋजु आचार्य पूछते हैं कब कहां तुम क्षेत्रिक आचार्य को प्राप्त कर सकोगे ? ४६८९. एवं वासावासे, उडुबद्धे पंथे जत्थ वा ठाति । सव्वत्थ होति उग्गहो, केसिंचि पतीवदितो ॥ यह वर्षावास या ऋतुबद्धकाल की सचित्तविषयक विधि जाननी चाहिए। अचित्त विषयक विधि यह है- वर्षावास, ऋतुबद्धकाल, मार्गगमन में, जहां आचार्य ठहरते हैं, वहां सर्वतः सक्रोशयोजन का अवग्रह होता है। कुछ आचार्य मानते हैं कि मार्ग में जाते समय पृष्ठतः अवग्रह नहीं होता। यह अनादेश है। यहां प्रदीप का दृष्टांत वक्तव्य है। प्रदीप सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार अवग्रह भी सर्वतः होता है। ४६९०. अक्खित्ते वसधीए, जाणग जाणाविए वि एमेव । उज्जुगमणुज्जुगे या, सो चेव गमो हवइ तत्थ ॥ अक्षेत्र अर्थात् इन्द्रकीलादियुक्त नगर में सक्रोश योजन का अवग्रह नहीं होता वहां जिस वसति में जो मुनि स्थित होते हैं, वहां जो सचित्त आदि आता है वह उनका आभाव्य होता है, पश्चात् आने वालों का नहीं। जो गम क्षेत्र विषयक कहा है वही गम ज्ञायक, ज्ञापित, ऋजुक, अऋजुक विषयक जानना चाहिए। ४६९१. अणिदिट्ठ सण्णऽसण्णी, णिद्दिट्ठ लिंगसहितो, सण्णी तस्सेव उण्णस्स ॥ अभिधारण का अर्थ है - प्रव्रज्या के लिए आचार्य का मन में संकल्प करना। उसके दो प्रकार हैं-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट | अभिधारक के दो प्रकार है-संती और असंज्ञी। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-गृहीतलिंग और अगृहीतलिंग | इस प्रकार सारा ओघतः स्वच्छंद आभाव्य होता है जिसके पास प्रव्रजित होता है उसी का आभाव्य होता है। निर्दिष्ट अभिधारण का अर्थ है-अमुक आचार्य के पास मैं प्रव्रजित होऊंगा, ऐसा निर्देश करना यह भी दो प्रकार का है-संज्ञी और असंज्ञी प्रत्येक के दो-दो प्रकार है-लिंगसहित और लिंगरहित जिस लिंगसहित संज्ञी धर्माचार्य को अभिधारण कर चलता है, वह उसीका आभाव्य होता है, दूसरे का नहीं। ४६९२. निद्दि अस्सण्णी, गहिया ऽगहिए य अगहिए सण्णी । महिता गहिए य ओह सच्छंदो तस्सेव अविपरिणते, विपरिणते जस्स से इच्छा ॥ जो असंज्ञी गृहीतलिंग हो या अगृहीतलिंग, जो संज्ञीश्रावक होये तीनों अविपरिणत भाव से किसी निर्दिष्ट Jain Education International ४८३ आचार्य की अभिधारणा करते हैं वे उसी के आभाव्य होते हैं। उसके प्रति उनका भाव विपरिणत हुआ है, जिसके पास वे प्रव्रज्या लेना चाहते हैं, उसीके वे शिष्य होते हैं। ४६९३. चारिय समुदाणट्टा, तेणग गिहिपंत धम्मसड्डा वा । एएहिं लिंगसहितो, सण्णी व सिया असण्णी वा ॥ वेलिंगसहित इसलिए जाते हैं कि चारिक गुप्तचारों को उनके प्रति शंका न हो तथा समुदान- भिक्षा की कठिनाई न हो । अपान्तराल में स्तेन, गृहिप्रान्त, धर्म- श्रद्धालु आदि है तो संज्ञी या असंज्ञी लिंगसहित जाता है। ४६९४. गा उद्दिस्स गतो, लिंगेणऽप्फालितो तु एक्केणं । दडुं च अचक्खुस्सं, णिद्दिट्ठण्णं गतो तस्स ॥ अनेक आचार्यों को उद्दिष्ट कर लिंगसहित गया। एक आचार्य ने उसे आस्फालित सादर आमंत्रित किया और वह यदि उसके पास गया तो वह उसी का शिष्य हो गया । अभावित होने पर भी अचक्षुष्यं अनिर्दिष्ट को देखकर निर्दिष्ट की भांति अन्य को प्राप्त होता है तो वह उसी का आभाव्य हो जाता है। ४६९५ निहिमणिदि, अब्भुवनय लिंगि नो लभह अण्णो । लिंगी व अलिंगी वा स च्छंदेण अणिद्दिट्ठो ॥ निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट आचार्य की अभिधारणा कर लिंगसहित शैक्ष जाता है, वह उसी का आभाव्य होता है। अन्य को वह प्राप्त नहीं होता। जो अनिर्दिष्ट की अभिधारणा करता है, वह लिंगी हो या अलिंगी वह जिसको चाहता है उसी का आभाव्य होता है। ४६९६. एमेव असिहसण्णी, णिद्विस्सुवगतो ण अण्णस्स । अब्भुवगतो विससिहो, जस्सच्छति दो व अस्सण्णी ॥ इसी प्रकार अशिखाक संज्ञी भी निर्दिष्ट का आभाव्य होता है, दूसरे का नहीं। जो सशिखाक संज्ञी है, वह किसी आचार्य के पास गया परन्तु बाद में विपरिणत हो गया तो जिसके वास प्रव्रज्या लेना चाहता है, उसीका आभाव्य होता है । सशिखाक और अशिखाक दोनों असंज्ञी हैं उन्होंने किसी आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण करने की स्वीकृति दी, परन्तु बाद में विपरिणत होकर, स्वच्छंदरूप से जहां प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, उसीके वे आभाव्य होते हैं। ४६९७. निदिनु सन्नि अन्भुवगतेतरे अड्ड लिंगिणो भंगा। एवमसि वि ससिहे, वि अट्ठ सव्वे वि चउवीसं ॥ कोई संज्ञी-श्रावक किसी आचार्य को निर्दिष्ट कर प्रव्रज्या के लिए जाता है। इन तीन पदों तथा इतर अर्थात् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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