SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४६८५-४६८७ आभाव्य अनाभाव्य का विभाग । ४६८८ ४६८९, ४६९० अचित्तविषयक विधि का प्रतिपादन । ४६९१-४६९९ एक अथवा अनेक आचार्यों को उद्दिष्ट कर आने वाले शैक्षविषयक आभाव्य-अनाभाव्य का विभाग। ४७००-४७०९ अपनी इच्छा से अभाव्य, उपशान्तक का आभाव्य आदि आभाव्य के नाना रूप । द्व्यक्षर ४७१० ४७११ ४७१२ ४७१७ प्रकार | ४७१३,४७१४ जिनके पास शैक्ष भेजा गया है वे यदि उसे स्वीकार नहीं करते हैं तो उनको प्रायश्चित्त । ४७१५,४७१६ मुंडित अथवा अमुंडित शैक्ष कब आभाव्य नहीं होता, उसका वर्णन। दीक्षा संकेत देने के बाद जब तक दीक्षित न करे तब तक शैक्ष द्वारा कृत हिंसा की अनुमोदना साधु को । ४७१८-४७३८ शैक्षविषयक अनेक प्रकार के संकेत । संकेत किए हुए शैक्षविषयक आभाव्य अनाभाव्य की विधि । शिष्य के विपरिणामन का स्वरूप ज्ञान दर्शनचारित्रविषयक गर्हा का तथा मन-वचन-कायाविषयक ग का स्वरूप | कल्पविधि के अतिरिक्त अन्य कल्पविधि का आचारण करने पर होने वाले परिणाम। सूत्र २९ अस्वाधीन साधर्मिक के अवग्रह का प्रतिपादन । किंचिद् शब्द से ग्राह्य आहार और उपधि के दोदो प्रकार । ४७३९ ४७४० ४७४१ सचित-अचित्त का विभाग । अचित्त के दो प्रकार । सोपधिक शैक्ष कौन होता है ? ४७४२ ४७४३ ४७४४ खरदृष्टान्त का दृष्टान्त । ग्लान की सेवा में संलग्न मुनि यदि प्रव्रजित शैक्ष की सार-संभाल न कर पाए तो दीक्षा का प्रतिषेध । दीक्षा देने पर प्रायश्चित्त । मुंडितअमंडित शैक्ष के प्रकार । शैक्ष की वैयावृत्य न करने पर प्रायश्चित्त । प्रव्रजित शैक्ष को दूसरे के पास भेजने के छह - Jain Education International गाथा संख्या विषय और उपधि के अवग्रह के ग्रहण की विधि । ४७४५-४७६१ तीर्ना संन्ध्याओं में उपाश्रय की प्रत्युपेक्षणा की विधि । न करने पर उससे लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त । अवग्रहविषयक अनेक प्रकार की यतनाएं। साधुओं के लिए प्रायोग्य की अनुज्ञापना है तो अर्थजात अप्रायोग्य है, उसका ग्रहण करना अतिप्रसंग है। शिष्य की शंका। भाष्यकार का समाधान । ४७६२ सूत्र ३० स्वामी द्वारा त्यक्त या अत्यक्त अवग्रह का प्रतिपावन । क्षेत्र के प्रकार और उनकी व्याख्या । क्षेत्र के दो प्रकारान्तर भेद तथा गृह के दो भेद । ४७६५-४७७२ वस्तु के तीन प्रकार । अव्यापृत, अव्याकृत, अपरपरिगृहीत, अमरपरिगृहीत पदों की व्याख्या तथा उनके उदाहरण । ४७६३ ४७६४ २५ ४७७३- ४७७६ जो अवग्रह जिस देव या मनुष्य से परिगृहीत है। उनसे अनुज्ञा लेकर वहां जाने की विधि। ४७७७ ४७७८ मुनियों के लिए अनुपभोज्य भक्तपान और उपधि । लन्द शब्द का अर्थ । प्रतिश्रय में रहते हुए अवग्रह का स्वरूप । प्रतिश्रय में पहले से रहने वाले वृषभों द्वारा आहार ४७८९ ४७७९-४७८६ महाराज भरत का भक्तपान लेकर अष्टापद पर्वत पर भगवान ऋषभ के दर्शनार्थ जाना। भरत के द्वारा भक्तपान अनेषणीय और अकल्पनीय जानकर साधुओं द्वारा अस्वीकार देवेन्द्र द्वारा भरत को अवग्रह का स्वरूप जानने के लिए भगवान से निवेदन की प्रार्थना । भगवान के द्वारा पांचों प्रकार के अवग्रहों का निरूपण भरत की संतुष्टि तथा साधुओं के लिए प्रायोग्य भक्तपान का वितरण । ४७८७,४७८८ अवग्रह विधि को जानकर भी अज्ञानवश उसे ग्रहण करने पर तीन प्रायश्चित्तों का विधान | किसको ग्रहण करने पर कौनसा प्रायश्चित ? उनके नाम । For Private & Personal Use Only सूत्र ३१ राजावग्रह की मार्गणा का प्रतिपादन । अवग्रह के पांच प्रकार कौनसा अवग्रह अनवस्थित और कौन सा अवस्थित है ? सूत्र ३२ सागारिक अवग्रह और राजावग्रह के परिमाण का www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy