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________________ ५८६ = संघट्टन से यदि सार्द्धयोजन पथ से जाना पड़े तो, उससे जाए, लेप तक उदक हो तो योजन पथ का चक्कर लेकर उससे जाए, नौका से नहीं। लेपोपरी उदक से आधायोजन जाना पड़े तो उससे जाए, नौका से नहीं। इस प्रकार नौका के उत्तरणस्थान से स्थल आदि में योजनद्वय आदि का परिहार होता है। ५६५७.दो जोयणाइं गंतुं, जहियं गम्मति थलेण तेण वए। मा य दुरूहे नावं, तत्थावाया बहू वुत्ता॥ दो योजन जाकर यदि स्थल से जाया जाए तो उससे जाए। नौका पर आरूढ़ न हो क्योंकि उसमें अनेक अपाय कहे गए हैं। ५६५८.थलसंकमणे जयणा, पलोयणा पुच्छिऊण उत्तरणं। परिपुच्छिऊण गमणं, जति पंथो तेण जतणाए॥ स्थल के संक्रमण में यतना करे-एक पैर जल में, एक पैर आकाश में रखते हुए संक्रमण करे। मुनि नौका से उतरने वाले यात्रियों को देखे, या दूसरों को पूछे और जहां अल्पतर पानी हो वहां उतरे। यदि दूसरा मार्ग हो तो पूछकर यतनापूर्वक उस मार्ग से जाए। ५६५९.समुदाणं पंथो वा, वसही वा थलपथेण जति नत्थि। सावत-तेणभयं वा, संघट्टेणं ततो गच्छे॥ उस पथ में भिक्षा की प्राप्ति न हो, स्थलमार्ग ही न हो, यदि उस मार्ग पर वसति न हो, वहां श्वापदभय या स्तेनभय हो तो उस मार्ग को छोड़कर संघट्ट से जाए और उसके अभाव में लेपयुक्त मार्ग से जाए। ५६६०.णिभये गारत्थीणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे। . सभए अत्थग्धे वा, उत्तिण्णेसुं घणं पढ़ें। यदि मार्ग निर्भय हो तो गृहस्थों के जल में उतर जाने के पश्चात् साधु पानी में उतरे। चोलपट्टक को ऊपर कर ले। यदि अथाह पानी के कारण भय हो तो गृहस्थों के उतर जाने पर मुनि चोलपट्टक को दृढ़ बांधकर, उनके पीछे उतरे।। ५६६१.दगतीरे ता चिट्टे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु। सभए पलंबमाणं, गच्छति काएण अफुसंतो॥ यदि कोई उपकरण भीग जाए तो दकतीर-पृथिवी पर, तब तक बैठा रहे जब तक भीगे हुए चोलपट्ट से सारा पानी झर न जाए। यदि वहां बैठना सभय हो तो उस भीगे हुए वस्त्र को अपने शरीर पर प्रलंबरूप से लेकर हाथों से स्पर्श न करता हुआ चले। ५६६२.असइ गिहि णालियाए, आणक्खेउं पुणो वि पडियरणं। एगाभोगं च करे, उवकरणं लेव उवरिं वा॥ =बृहत्कल्पभाष्यम् गृहस्थों के अभाव में नालिका (आत्मप्रमाण से चार अंगुल लंबी) को साथ ले उससे पानी की गहराई का अनुमान कर परतीर से पुनः आ सकता है। वहां से आकर वह उपकरणों को एकाभोगं-एकत्र बांधकर ले जाता है। यह लेप तथा लेप के ऊपरी जल में जाने की विधि है। ५६६३. बिइयपय तेण सावय, भिक्खे वा कारणे व आगाढे। कज्जुवहि मगर छुब्भण, नावोदग तं पि जतणाए। इसमें द्वितीयपद यह है-स्थल तथा संघट्ट आदि पथों में स्तेन, श्वापद आदि हो, भिक्षा की प्राप्ति न हो, अथवा आगाढ़ कारण हो, कुलादि कार्य करना हो, औषधि लानी हो, मगरमच्छ का भय हो, कदाचित् प्रत्यनीक ने पानी में फेंक दिया हो, यदि बलाभियोग से नौका का पानी उलीचने के लिए बाध्य किया जाए तो वह भी यतनापूर्वक करे। ५६६४.पुरतो दुरुहणमेगतो, पडिलेहा पुव्व पच्छ समगं वा। सीसे मग्गतो मज्झे, बितियं उवकरण जयणाए। गृहस्थों के समक्ष वस्त्रों का प्रत्युपेक्षण न करे, नौका में चढ़ने से पूर्व एकान्त में उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करे। नौका में आरोहण गृहस्थों से पहले, पश्चात्, या साथ में करे? यदि नाविक भद्र हो तो पहले, प्रान्त हो तो पश्चात् या साथ में करे। नौका के सिर पर नहीं बैठना चाहिए, वह देवता का स्थान होता है। पार्श्व में भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि वह निर्यामक का स्थान होता है। मध्य में भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि वह कूपक का स्थान है। दूसरे मध्य स्थान में बैठना चाहिए। नौका से उतरते समय न पहले उतरे और न बाद में, किन्तु मध्य में उतरना चाहिए। अन्तप्रान्त चीवर को धारण करे। यदि नाविक उपकरणों की मांग करे, तो यतनापूर्वक अन्तप्रान्त उपकरण दे। दूसरा कोई अनुकंपा कर नाविक को देता है तो प्रतिषेध न करे। उखस्सय-पदं से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु अहेसवणमायाए नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंत-गिम्हासु वत्थए। (सूत्र ३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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