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________________ चौथा उद्देशक ५८७ से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु उप्पिंसवणमायाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंत-गिम्हासु वत्थए। (सूत्र ३२) से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु अहेरयणिमुक्कमउडे नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए। (सूत्र ३३) से तणेसु वा तणपुंजेस वा पलालेस वा पलालपंजेस वा अप्पंडेस अप्पपाणेस अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु उप्पिरयणिमुक्कमउडे कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासंवत्थए। -त्ति बेमि॥ (सूत्र ३४) ५६६५.अद्धाणातो निलयं, उविंति तहियं तु दो इमे सुत्ता। तत्थ वि उडुम्मि पढम, उडुम्मि दूइज्जणा जेणं॥ पूर्वसूत्र में जलपथ लक्षण अध्वा बताया गया था। वहां से मुनि निलय-उपाश्रय में आते हैं। उस विषय में ऋतुबद्ध और वर्षावास से संबंधित प्रत्येक के दो-दो सूत्र हैं। उसमें भी प्रथमसूत्र युगल ऋतुबद्ध विषयक और द्वितीयसूत्र युगल वर्षावास विषयक है। क्योंकि ऋतुबद्धकाल में मुनियों का विहार होता है, वर्षावास में नहीं। ५६६६.अहवा अद्धाणविही, वुत्तो वसहीविहिं इमं भणई। सा वी पुव्वं वुत्ता, इह उ पमाणं दुविह काले॥ अथवा अध्वा की विधि पूर्वसूत्र में कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में वसति की विधि कही जाती है। वह भी पूर्व सूत्रों में कही जा चुकी है। प्रस्तुत सूत्रों में दोनों प्रकार की ऋतुबद्ध और वर्षावास काल में उसके प्रमाण विषयक चर्चा है। ५६६७.तणगहणाऽऽरण्णतणा, सामगमादी उ सूइया सव्वे। सालीमाति पलाला, पुंजा पुण मंडवेसु कता। तृण ग्रहण से आरण्यकतृण, श्यामाकतृण आदि सूचित होते हैं। पलाल के ग्रहण से शाल्यादि पलाल गृहीत होते हैं। तृणों के और पलाल के पुंज मंडपों में किए जाते हैं। ५६६८.पुंजा उ जहिं देसे, अप्पप्पाणा य होति एमादी। अप्प तिग पंच सत्त य, एतेण ण वच्चती सुत्तं। जिन देशों में मंडपों में पुंज होते हैं, वे अल्पप्राण, अल्पबीज आदि होते हैं। अल्प शब्द से कोई यह सोच ले कि तीन-पांच-सात जीव वाले मानने चाहिए। इस परोक्त कथन के आधार पर सूत्र नहीं चलता। यहां अल्प शब्द अभाव वाचक है। ५६६९.वत्तव्वा उ अपाणा, बंधणुलोमेणिमं कयं सुत्तं। पाणादिमादिएसुं, ठंते सहाणपच्छित्तं।। तब वह पर व्यक्ति कहता है-तब सूत्रालापक इस प्रकार होना चाहिए-अपाणेसु अबीएसु-आदि। गुरु कहते हैं-यह सूत्र बन्धानुलोम्य से कृत है। यदि दो-चार-पांच आदि प्राणी वाले मंडपों में रहते हैं तो प्राणियों की विराधना से स्वस्थान प्रायश्चित्त आता है। ५६७०.थोवम्मि अभावम्मि य, विणिओगो होति अप्पसहस्स। थोवे उ अप्पमाणो, __ अप्पासी अप्पनिहो य॥ ५६७१.निस्सत्तस्स उ लोए, अभिहाणं होइ अप्पसत्तो त्ति। ___लोउत्तरे विसेसो, अप्पाहारो तुअट्टिज्जा॥ अल्प शब्द का विनियोग-व्यापार दो अर्थों में होता हैस्तोक और अभाव। स्तोक अर्थ में जैसे-अल्पमान, अल्पाशी, अल्पनिद्र। अभाववाची अल्प शब्द, जैसे-लोक में निःसत्त्व पुरुष अल्पसत्त्व कहलाता है। लोकोत्तर में भी यह विशेषरूप से प्रयुक्त है जैसे-अल्पाहार, अल्पत्वग्वर्तन करेसोए, अल्पातंक-नीरोग आदि। ५६७२.बिय-मट्टियासु लहुगा, हरिए लहुगा व होति गुरुगा वा। पाणुत्तिंग-दएसुं, लहुगा पणए गुरू चउरो॥ बीज, मृत्तिकायुक्त तृणों पर बैठने से चतुर्लघु, प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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