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५८८ वनस्पति पर चतुर्लघु और अनन्त पर चतुर्गुरु, प्राणियों पर- द्वीन्द्रिय आदि पर, उत्तिंग और उदक पर बैठने से चतुर्लधु, पनक पर चतुर्गुरु। ५६७३.सवणपमाणा वसही, अधिठंते चउलहुं च आणादी।
मिच्छत्त अवाउड पडिलेह वाय साणे य वाले य॥ जो वसति पुरुष के कानों से नीचे तक तृणयुक्त हो, वैसी श्रवणप्रमाण वाली वसति में रहने से चतुर्लघु तथा आज्ञाभंग आदि दोष होता है। जिन मुनियों का सागारिक (प्रजनेन्द्रिय) अपावृत और वैक्रिय होता है उसे देखकर लोग मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। ऊपर प्रत्युपेक्षा नहीं होती। झुककर चलने से कटी या पीठ वायु से जकड़ जाते हैं। लटकते हुए सागारिक को कुत्ते काट डालते हैं, ऊपर सिर लगने से सर्प डस लेता है। ५६७४.सवणपमाणा वसही, खेत्ते ठायते बाहि वोसग्गो।
पाणादिमादिएसुं, वित्थिण्णाऽऽगाढ जतणाए॥ अन्य क्षेत्रों में अशिव आदि हो तो अधःश्रवणप्रमाण वाली वसति में रहने पर यह यतना है-वसति के बाहर आवश्यक करते हैं। द्वितीयपद में सप्रमाण वाली वसति में रहे तो यतनापूर्वक विस्तीर्ण भूभाग में रहे। आगाढ़ कारण में स्थित मुनियों के लिए यह यतना है-बीज आदि से संसक्त स्थान को राख से लक्षित करे, कुटमुख से हरियाली को ढंके, और बीज आदि को एकान्त में स्थापित करे। ५६७५.वेउव्व-ऽवाउडाणं, वुत्ता जयणा णिसिज्ज कप्पो वा।
उवओग जिंतऽइंते, हु छिंदणा णामणा वा वि॥ जिन मुनियों का सागारिक विकुर्वणायुक्त है, वे पूर्वोक्त यतना का पालन करे। वे पिछले भाग को निषद्या या कल्प से आच्छादित करते हैं। वे उपयोगपूर्वक जाते-आते हैं। जो तृण ऊपर से लटकते हैं, उनका छेदन या नामन करते हैं। ५६७६.अंजलिमउलिकयाओ,
दोण्णि वि बाहा समूसिया मउडो। हेट्ठा उवरिं च भवे,
मुक्कं तु तओ पमाणाओ॥ मुकुलित अंजलियों सहित दोनों भुजाओं को ऊपर करने पर मुकुट की आकृति होती है। उतने प्रमाण को स्वीकार कर संस्तारक पर बैठे हुए मुनि के नीचे और ऊपर जो अन्तराल रहता है, ऐसी ऊपर से रत्निमुक्त मुकुट वाली वसति में वर्षाकाल में रहा जा सकता है।
==बृहत्कल्पभाष्यम् ५६७७.हत्थो लंबइ हत्थं, भूमीओ सप्पो हत्थमुट्ठति।
सप्पस्स य हत्थस्स य, जह हत्थो अंतरा होइ।। फलक आदि पर सोए हुए मुनि का हाथ एक हाथ प्रमाण से नीचे लटकता है। भूमी पर चलता हुआ सर्प एक हाथ ऊपर उठ सकता है, इसलिए सर्प और हाथ के बीच एक हाथ का अन्तर हो, वैसे करना चाहिए। ५६७८.माला लंबति हत्थं, सप्पो संथारए निविट्ठस्स।
सप्पस्स य सीसस्स य, जह हत्थो अंतरा होइ॥ मुनि संस्तारक पर बैठा है। माले से सर्प एक हाथ नीचे लटकता है। सर्प के और सिर के बीच एक हाथ का अन्तर हो वैसा बिछौना करे। ऐसे उपाश्रय में रहना चाहिए। ५६७९.काउस्सग्गं तु ठिए, मालो जइ हवइ दोसु रयणीसु।
कप्पइ वासावासो, इय तणपुंजेसु सव्वेसु॥ कायोत्सर्ग में स्थित मुनि से माला दो रत्नि ऊपर हो, उस वसति में वर्षावास करना कल्पता है। इसी प्रकार सभी तृणपुंजों के विषय में जानना चाहिए। ५६८०.उप्पिं तु मुक्कमउडे, अहि ठंते चउलहुं च आणाई।
मिच्छत्ते वालाई, बीयं आगाढ संविग्गो। ऊपर मुक्तमुकुट उपाश्रय में रहे। अधोमुक्तमुकुट उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु, आज्ञाभंग आदि दोष, मिथ्यात्व, व्याल आदि का उपद्रव होता है। अपवादपद भी पूर्ववत् मानना चाहिए। आगाढ़ कारण में वहां रहने वाला संविग्न ही होता है। ५६८१.दीहाइमाईसु उ विज्जबंधं, ..
कुव्वंति उल्लोय कडं च पोत्तिं। कप्पाऽसईए खलु सेसगाणं,
मुत्तुं जहण्णेण गुरुस्स कुज्जा॥ वसति में यदि सर्प आदि हों तो उनको विद्या द्वारा बांध दिया जाता है। विद्या न होने पर ऊपर चंदोवा बांधते है। चंदोवा के अभाव में चटाई, उसके अभाव में चिलिमिलिका बांधते हैं। यदि उतने कल्प न हों तो शेष मुनियों को छोड़कर जघन्यतः गुरु के ऊपर अवश्य बांध दे।
चौथा उद्देशक समाप्त
शुकसान
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