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विषयानुक्रम
ર૭.
गाथा संख्या विषय ४८६१ गोचर, गोपानस्थान आदि अवग्रह नहीं होते। ४८६२ जिस व्रजिका में दो गच्छ स्थित हो वहां दोनों का
अवग्रह समान। ४८६३-४८६५ वजिका के अवग्रह की भिन्न-भिन्न मार्गणाएं। ४८६६-४८७५ सार्थ संबंधी अवग्रह की मार्गणा। ४८७६ नगर संबंधी संवर्त में अवग्रह नहीं।
चौथा उद्देशक पायच्छित्त-पदं
सूत्र १ ४८७७
सूत्र के द्वारा सूत्र अथवा अर्थ से दूसरा सूत्र
ग्रथित होता है। ४८७८ प्रस्तुत सूत्र का प्रयोजन। ४८७९ भिक्षाचर्या के लिए गए हुए मुनि के वहीं रात्रिवास
करने पर प्रायश्चित्त। ४८८०,४८८१ वजिका में निवास करने वाले मुनि के दोषों का
दिग्दर्शन। ४८८२ एक के निक्षेप पश्चात् तीन की निष्पत्ति। ४८८३ नाम, स्थापना आदि सात पद एक-एक होते हैं। ४८८४ द्रव्य तथा मातृकापद के तीन प्रकार तथा संग्रह
एकक बहुत्व होने पर भी एक वचन। ४८८५ पर्याय और भाव के दो प्रकार।
त्रिक का निक्षेप सात प्रकार से। ४८८७ द्रव्यत्रिक के प्रकार। ૪૮૮૮ परमाणुत्रिक आदि अचित्त तथा क्षेत्रत्रय के
प्रकार। ४८८९
भाव के दो प्रकार। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार। ४८९०-४८९४ उद्घातिक और अनुद्घातिक का निक्षेप और
उनकी व्याख्या। ४८९५,४८९६ हस्त के चार प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेद। ४८९७ कर्मपद के चार निक्षेप। ४८९८ भावकर्म के प्रकार। ४८९९-४९१० असंक्लिष्ट कर्म के आठ प्रकार तथा उनके भेद
प्रभेद और व्याख्या। ४९११-४९१४ यथानुपूर्वी संक्लिष्ट हस्तकर्म की परिभाषा।
स्त्री की प्रतिमा के विविध भेद और यवन देश में
प्रचलित स्त्री रूप प्रतिमा का दृष्टान्त। ४९१६
तत्रगत और आगंतुक सचित्त रूप का स्वरूप।
गाथा संख्या विषय ४९१७-४९१९ स्त्रियों के आलिंगन आदि को देखने से
मोहाग्नि का प्रदीप्त होना संभव। प्रदीप्त होने से
होने वाले दोष और तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४९२० छोटे गच्छ का बड़े प्रतिश्रय में रहने से दोष। ४९२१ अशिव आदि कारणों से विस्तृत वसति में रहने
का निर्देश। ४९२२ विशाल उपाश्रय में साधुओं द्वारा भूमि पर
संस्तारकों को अस्त-व्यस्त करने का निर्देश। ४९२३ विशाल उपाश्रय में रात्री वेला में रक्षणीय यतना।
वेश्या स्त्री आदि को वर्जन। न माने तो वहां
से प्रस्थान का निर्देश। ४९२४,४९२५ अपवाद में परुष वचनों से समझाने का निर्देश।
न समझे तो व्यवहार करने का निर्देश। ४९२६-४९२८ उत्सर्गतः घंघशाला में ठहरने का निषेध। अपवाद
में वहां रक्षणीय यतनाओं का स्वरूप। ४९२९,४९३० प्रतिसेवना करते देखकर सुविहित मुनि के
कर्मोदय कैसे? उसका समाधान। ४९३१ हस्तकर्म करने से प्रायश्चित्त विधान के प्रकार। ४९३२-४९३९ अदृदधृति वाले मुनि के हस्तकर्म सेवन से
प्रायश्चित्त के नाना प्रकार तथा प्रतिसेवना के लिए सदोष-अदोष भाषा का प्रयोग कर उसे
कहने वालों को भी प्रायश्चित्त का विधान। ४९४० साध्वियों को हस्तकर्म कराने के लिए कहने वालों
को प्रायश्चित्त का प्रकार। ४९४१ मैथुन के तीन प्रकार। ४९४२ मैथुन के तीनों प्रकारों में अपवाद से प्रतिसेवना
करने पर प्रायश्चित्त क्यों? ४९४३ आचार्य द्वारा समाधान-प्रतिसेवना के दो प्रकार।
किससे आराधना और किससे विराधना। ४९४४ मैथुन भाव में उत्सर्ग धर्मता ही अनुमत, अपवाद
नहीं। अन्य पदों में दोनों अनुमत। ४९४५ कुशल आलम्बन के द्वारा अथवा अन्य किसी
आलम्बन से अकृत्य का सेवन होने पर
प्रायश्चित्त की हानि और वृद्धि। ४९४६ गीतार्थ मुनि के लिए कारण में यतनापूर्वक
प्रतिसेवना निर्दोष, निष्कारण में सदोष। ४९४७ मैथुन की सदोषता निर्दोषता कब? ४९४८-४९५४ उपाय के निरूपण में बुद्धि का प्राधान्य। निर्वंशीय दृष्टान्त तथा मैथुनविषयक नाना स्थितियों में
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