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बृहत्कल्पभाष्यम्
५०१२
गाथा संख्या विषय
गाथा संख्या विषय भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त।
मुनियों को देने की विधि। ४९५५-४९६० दुर्भिक्ष काल में गुरु के द्वारा संघ विसर्जित न होने ५००५ कषायदुष्ट के परिणामों की चर्चा।
पर प्रायश्चित्त। भोजन के न मिलने पर होने वाली ५००६ विषयदुष्ट पारांचिक की स्वपक्ष-परपक्षदुष्ट गच्छ की हानि। क्षुल्लक मुनि का दृष्टान्त।
द्वारा चतुभंगी। शिष्य द्वारा जिज्ञासा-तीन प्रकार के मैथुन में
५००७
प्रथम तथा दूसरे भंग में पारांचिक प्रायश्चित्त का इच्छा कैसे उत्पन्न होती है? उसके कारणों की
विधान। व्याख्या।
५००८-५०१० रजोहरण आदि से युक्त संयमी द्वारा संयती के ४९६१-४९६७ रात्री भोजन करने पर प्रायश्चित्त का निर्देश।
साथ प्रतिसेवना से लगने वाले दोष। तविषयक अपवाद और यतनाएं।
५०११ क्षेत्रिक दोष की उत्पत्ति से होने वाला क्षेत्र सूत्र २
पारांचिक। ४९६८,४९६९ देशतः और सर्वतः भेद से छेद के दो प्रकार। देश
उपाश्रय-पारांचिक, कुल-पारांचिक, निवेशनछेद का कालमान और सर्वछेद के तीन प्रकार तथा
पारांचिक, पाटक-पारांचिक आदि का स्वरूप। उनमें पारांचिक छेद का अधिकार।
५०१३ साधक को उपाश्रय आदि स्थानों से पारांचिक ४९७० सूत्र में छेद का उल्लेख क्यों नहीं? आचार्य द्वारा
क्यों किया जाता है? शिष्य का प्रश्न आचार्य समाधान।
द्वारा समाधान। ४९७१ पारांचिक पद की व्युत्पत्ति और उसका तात्पर्य।
५०१४ जिन स्थानों में संयतियां विहरण करें वहां संयत ४९७२ पारांचिक के दो प्रकार। प्रत्येक के दो-दो प्रकार।
विहरण की वर्जना। ४९७३ परिणामों की तरतमता से होने वाले चारित्रिक
५०१५ कषायदुष्ट तथा विषयदुष्ट का अधिकार। दोष।
५०१६
पांच प्रकार के प्रमाद तथा निद्रा के पांच प्रकार। ४९७४ अपराध की तुल्यता में परिणामों का अथवा
५०१७-५०२२ स्त्यानर्द्धि निद्रा का लक्षण और उसके परिणामों की तुल्यता में अपराधों का नानात्व।
उदाहरण-पुद्गल-मांस, मोदक, कुंभकार, दांत ४९७५-४९८४ तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत आदि की आशातना,
और वट वृक्ष की शाखा को तोड़ना। उसका स्वरूप और आशातना करने वालों के
५०२३ स्त्यानर्द्धि साधु का बल सामान्य मनुष्य से लिए प्रायश्चित्त की मार्गणा।
अधिक। उस साधु का वेश हरण करने का ४९८५ प्रतिसेवना पारांची के तीन प्रकार।
निर्देश। ४९८६ दुष्टपारांचिक तथा कषायदुष्ट के दो-दो प्रकार।
५०२४ स्त्यानर्द्धि मुनि को लिंग न देने, लिंगापहार स्वपक्षदुष्ट तथा परपक्षदुष्टपद की चतुर्भंगी।
करने तथा रात्री में सोए हुए को छोड़ने का निर्देश। ४९८७-४९९३ स्वपक्ष कषाय दुष्ट के चार दृष्टान्त-सरसों की
५०२५ भाजी, मुख वस्त्रिका, उलूकाक्ष और शिखरिणी।
सुविहित श्रमणों के लिए परस्पर करण-मुख-पायु
प्रयोग से सेवन अकल्पनीय। ४९९४-४९९७ परपक्षकषायदुष्टादि के अनेकविध प्रकार और उनका स्वरूप।
५०२६ मुख और पायु का सेवन करने वाले द्विवेदक ४९९८ साधुओं के लिए आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य को
नपुंसक के लिंग विवेक करने का निर्देश। ग्रहण करने की विधि और आचार्य के लिए
यतनापूर्वक परित्याग करने का निर्देश। यतनापूर्वक भोजन करने का निर्देश।
५०२७ विषयदुष्ट, कषायदुष्ट, प्रमत्त तथा अन्योन्यसेवी ४९९९ शिष्य द्वारा आनीत का ग्रहण संबंधी दूसरा
को कब और किस प्रकार का पारांचिक आदेश।
प्रायश्चित्त आता है उसका वर्णन। ५०००,५००१ आचार्य जिन शिष्यों से भक्तपान ग्रहण करते हैं, ५०२८-५०३१ तपःपारांचिक का स्वरूप तथा उसके योग्य उनका स्वरूप।
व्यक्ति के गुणों का कथन। ५००२-५००४ गुरु के भोजन करने पर शेष भोजन बाल आदि ५०३२ आशातनापारांचिक तथा प्रतिसेवनापारांचिक की Jain Education International For Private & Personal Use Only
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