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________________ छठा उद्देशक ६३८९.लोभे एसणघाते, संका तेणे नपुंस इत्थी य। इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ राजभवन में प्रविष्ट मुनि लोभवश एषणाघात करता है। राजपुरुषों को यह शंका होती है कि यह कोई स्तेन है। वहां नपुंसक या स्त्रियां उस साधु को उपसर्गित कर सकते हैं। चाहते हुए या न चाहते हुए भी संयमविराधना आदि दोष होते हैं। वहां जाने पर चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त प्रास होता है। ६३९०.अन्नत्थ एरिसं दुल्लभं ति गेण्हेज्जणेसणिज्जं पि। अण्णेणावि अवहिते, संकिज्जति एस तेणो ति॥ 'अन्यत्र ऐसा उत्कृष्ट द्रव्य मिलना दुर्लभ है'यह सोचकर राजभवन में गया हुआ मुनि अनेषणीय भी ग्रहण कर लेता है। राजभवन में यत्र-तत्र स्वर्ण आदि बिखरा पड़ा रहता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसमें से अपहृत कर लेता है, चुरा लेता है परन्तु 'वह साधु चोर है' ऐसी आशंका होती है। साधु पर चोरी का आरोप आ जाता है। ६३९१.संका चारिग चोरे, मूलं निस्संकियम्मि अणवट्ठो। परदारि अभिमरे वा, णवमं णिस्संकिए दसमं॥ यह मुनि चारिक है, चोर है, ऐसी शंका होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है, निःशंकित अवस्था में अनवस्थाप्य, पारदारिक की शंका होने पर तथा अभिमर की शंका होने पर नौवां प्रायश्चित्त और निःशंकित होने पर दसवां-पारांचिक प्रायश्चित्त है। ६३९२.अलभंता पवियारं, इत्थि-नपुंसा बला वि गेण्हेज्जा। आयरिय कुल गणे वा, संघे व करेज्ज पत्थारं॥ राजभवन से स्त्री-नपुंसकों का बाहर जाना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में बलपूर्वक वे साधु को ग्रहण कर लेते हैं। प्रतिसेवना करने पर चारित्र विराधना और न करने से उड्डाह तथा प्रान्तापना दोष होते हैं। इससे राजा रुष्ट होकर प्रस्तार-आचार्य, कुल, गण और संघ का विनाश कर देता है। ६३९३.अण्णे वि होति दोसा, आइण्णे गुम्म रतणमादीया। तण्णिस्साए पवेसो, तिरिक्ख मणुया भवे दुट्ठा॥ वहां जाने पर अन्य अनेक प्रकार के दोष होते हैं। वह स्थान रत्नों से आकीर्ण होता है। वहां गौल्मिक-स्थानपाल रहते हैं। वे साधु को वहां आया देखकर उसे ग्रहण कर परितापना दे सकते हैं। साधु के निश्रा में चोर भी प्रवेश कर लेते हैं। राजभवन में पशु, मनुष्य आदि दुष्ट हो सकते हैं और वे साधु को उपद्रुत करते हैं। ६३९४.आइण्णे रतणादी, गेण्हेज्ज सयं परो व तन्निस्सा। गोम्मिय गहणाऽऽहणणं, रण्णो व णिवेदिए जंतु॥ रत्न आदि से आकीर्ण उस भवन में रत्नों को साधु स्वयं अथवा उसकी निश्रा में जाने वाला कोई दूसरा आदमी ले लेता है। गौल्मिक उसे ग्रहण और आहनन करता है। राजा को निवेदन करने पर जो प्रान्तापनादि करता है, उसका प्रायश्चित्त आता है। ६३९५.चारिय चोराऽभिमरा, कामी व विसंति तत्थ तण्णीसा। वाणर-तरच्छ-वग्या, मिच्छादि णराव घातेज्जा। चारिक, चोर, अभिमर और कामी-ये सारे साधु की निश्रा से वहां प्रवेश कर सकते हैं। वानर, तरक्ष, बाघ, म्लेच्छ आदि साधु पर घात कर सकते हैं। ६३९६.दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणे दवदुल्लभे असिवे। ओमोयरिय पदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं॥ ६३९७.तिक्खुत्तो सक्खित्ते, चउद्दिसिं जोयणम्मि कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, जयणाए कप्पई ताहे।। दोनों प्रकार के ग्लानत्व-आगाढ़ और अनागाढ़ में राजपिंड लिया जा सकता है। आगाढ़ कारण में तत्काल और अनागाढ़ कारण में तीन बार मार्गणा करने पर भी यदि उसके प्रायोग्य आहार न मिले तो प्रायश्चित्तपूर्वक उसे लिया जा सकता है। राजा द्वारा आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव और अवमौदर्य में, राजा के प्रद्विष्ट होने पर, तस्कर आदि का भय होने पर-इन स्थितियों में राजपिंड के ग्रहण की अनुज्ञा है। अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में कोशसहित योजन तक तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभद्रव्य की प्राप्ति नहीं होती है तो कृतयोगी मुनि को यतनापूर्वक राजपिंड लेना कल्पता है। ६३९८.कितिकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं। समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं॥ कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वंदनक। श्रमण और श्रमणियों को यथार्ह परस्पर दोनों करने चाहिए। ६३९९.सव्वाहिं संजतीहिं, कितिकम्मं संजताण कायव्वं । पुरिसुत्तरितो धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि। सभी श्रमणियों को श्रमणों का कृतिकर्म करना चाहिए। क्योंकि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पुरुषोत्तर धर्म होता है। ६४००.तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं। अण्णो वि होज्ज दोसो, थियासु माहुज्जहज्जासु॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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