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= बृहत्कल्पभाष्यम् सेवन की भजना है। अटवी में प्रवेश करने पर यदि तीन बार राजा के चार भंग होते हैंअन्वेषणा करने पर भी शुद्ध न मिले तो चौथे परिवर्त में १. मुदित और मूर्धाभिषिक्त। आधाकर्म का ग्रहण किया जा सकता है।
२. मुदित और मूर्धामिषिक्त नहीं। ६३७८.तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णात उग्गमो ण सुज्झे। ३. मुदित नहीं किन्तु मूर्धाभिषिक्त।
अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा विउच्छेदो॥ ४. न मुदित न मूर्धाभिषिक्त। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर, मध्यम और प्रथम भंग में राजपिंड वर्ण्य है फिर चाहे उसके विदेहज तीर्थंकरों ने आधाकर्म ग्रहण की आज्ञा दी है, परंतु ग्रहण में दोष हों या न हों। शेष तीन भंगों में वह राजपिंड शय्यातरपिंड का प्रतिषेध किया है। अतः शय्यातरपिंड नहीं होता। जिनमें दोष हों उन भंगों का वर्जन करना तीर्थंकरों द्वारा प्रतिक्रुष्ट है। जो उसे लेता है, वह आज्ञाभंग चाहिए। करता है, अज्ञातोञ्छ का सेवन करता है, उसके उद्गमदोषों ६३८४.असणाईआ चउरो, वत्थे पादे य कंबले चेव। की शुद्धि नहीं होती, अविमुक्ति-गृद्धि का अभाव नहीं होता, पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ॥ लाघवता नहीं होती, शय्या वसति दुर्लभ हो जाती है अथवा राजपिंड आठ प्रकार का होता है-अशन, पान, खादिम, सर्वथा उसका विच्छेद हो जाता है।
स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन (रजोहरण)। ६३७९.दुविहे गेलण्णम्मि, निमंतणे दवदुल्लभे असिवे। ६३८५.अट्ठविह रायपिंडे, अण्णतरागं तु जो पडिग्गाहे। ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुण्णातं॥
सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराहणं पावे॥ दोनों प्रकार के ग्लानत्व-आगाढ़ और अनागाढ़ में आठ प्रकार के राजपिंड में से कोई मुनि किसी भी प्रकार शय्यातरपिंड लिया जा सकता है। शय्यातर द्वारा निमंत्रण का राजपिंड ग्रहण करता है तो वह आज्ञाभंग, अनवस्था, देने पर, आग्रह करने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव मिथ्यात्व तथा विराधना को प्राप्त होता है। में, अवमौदर्य में, राजप्रद्वेष में, तस्करादि के भय में- ६३८६.ईसर-तलवर-माडंबिएहि सिट्ठीहिं सत्थवाहेहिं। शय्यातरपिंड अनुज्ञात है।
जिंतेहिं अतितेहि य, वाघातो होति भिक्खुस्स। ६३८०.तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं जोयणम्मि कडजोगी। ईश्वर, तलवर, माडंबिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह-इनके
दव्वस्स य दुल्लभता, सागारिणिसेवणा ताहे॥ निर्गमन तथा प्रवेश करते समय भिक्षा के लिए गए हए भिक्षु अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में कोशसहित योजन तक के व्याघात होता है। तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभद्रव्य की प्राप्ति नहीं ६३८७.ईसर भोइयमाई, तलवरपट्टेण तलवरो होति। होती है तो कृतयोगी मुनि सागारिकपिंड की निषेवना करे।
वेट्टणबद्धो सेट्ठी, पच्चंतऽहिवो उ माडंबी॥ ६३८१.केरिसगु त्ति व राया, भेदा पिंडस्स के व से दोसा। भोजिक-ग्रामस्वामी आदि ईश्वर कहलाता है। नृप द्वारा
केरिसगम्मि व कज्जे, कप्पति काए व जयणाए॥ प्रदत्त सुवर्णतलवरपट्ट से अंकित शिरवाला तलवर होता है। किस राजा के राजपिंड का परिहार किया जाए ? राजपिंड वेष्टनक (श्रीदेवताध्यासित पट्ट) बद्ध श्रेष्ठी कहलाता है। के भेद कौन से हैं? उसके ग्रहण में दोष क्या है? किस कार्य प्रत्यन्ताधिप माडंबिक होता है। में राजपिंड लेना कल्पता है? उसके ग्रहण में यतना कैसी ६३८८.जा णिति इंति ता अच्छओ अहो? इन द्वारों की मीमांसा करनी चाहिए।
सुत्तादि-भिक्खहाणी य। ६३८२.मुइए मुद्धभिसित्ते, मुतितो जो होइ जोणिसुद्धो उ। इरिया अमंगलं ति य, __अभिसित्तो व परेहिं, सतं व भरहो जहा राया।
पेल्लाऽऽहणणा इयरहा वा॥ राजा के दो प्रकार हैं-मुदित, मूर्धाभिषिक्त। जो जब ईश्वर आदि निर्गमन या प्रवेश करते हैं तब तक योनिशुद्ध (जिसके माता-पिता राजवंशीय राजा है) वह भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु प्रतीक्षा करता रहता है। तब मुदित राजा है। दूसरों से राजा के रूप में अभिषिक्त है वह । तक उसके सूत्रार्थ और भिक्षा की हानि होती है। अश्व, हाथी मूर्धाभिषिक्त राजा है। अथवा जो भरत नृप की भांति स्वयं आदि के संघट्टन के भय से ईर्या का शोधन नहीं होता। साधु ही अभिषिक्त होता है।
को देखकर कोई अमंगल मान सकता है, इससे प्रेरित होकर ६३८३. पढमग भंगे वज्जो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। अश्व-हाथी आदि का आहनन कर सकता है अथवा जनसंमई
सेसेसु होतऽपिंडो, जहिं दोसा ते विवज्जति॥ से साधु के संघट्टन हो सकता है।
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