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________________ ४५६ इसी प्रकार वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक के भी स्वस्थान- परस्थान प्रायश्चित्त वक्तव्य है। स्वस्थान का तात्पर्य है वृषभ का वृषभ और परस्थान का तात्पर्य है वृषभ का आचार्य। इसी प्रकार भिक्षु और क्षुल्लक के भी स्वस्थान-परस्थान होता है। जो प्रायश्चित्त परस्थान में आचार्य को प्राप्त होता है वही वृषभ आदि को स्वस्थान में प्राप्त होगा। जैसे वृषभ आदि प्राघूर्णक आचार्य के आने पर अभ्युत्थान न करे तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। वृषभ के आने पर अभ्युत्थान न करने पर चतुर्लघु। भिक्षु और क्षुल्लक के आने पर अभ्युत्थान न करने पर क्रमशः मासलघु और भिन्नमास। जो परस्थान में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है वही स्वस्थान में प्राप्त होता है। ४४२४.दोहि वि गुरुगा एते, आयरियस्सा तवेण कालेण। तवगुरुगा कालगुरू, दोहि वि लहुगा य खुड्डस्स। आचार्य के ये सभी प्रायश्चित्त दोनों अर्थात् तप और काल से गुरु होते हैं। वृषभ के तपोगुरु, भिक्षु के कालगुरु और क्षुल्लक के तप और काल से लघु होते हैं। ४४२५.अहवा अविसिट्ठ चिय, पाहुणयाऽऽगंतुए गुरुगमादी। पावेंति अणुट्ठिता, चउगुरु लहुगा लहुग भिन्नं॥ अथवा शब्द प्रायश्चित्त का प्रकारान्तर द्योतक है। आचार्य आदि विशेषण से विरहित आगंतुक प्राघूर्णक के प्रति अभ्युत्थान न करने वाले गुरु आदि अर्थात् आचार्य आदि यथाक्रम चतुर्गुरु, चतुर्लघुक, लघुमास और भिन्नमास का प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं। जैसे कोई भी प्राघूर्णक के आने पर यदि आचार्य अभ्युत्थान नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु, वृषभ को चतुर्लघु, भिक्षु को लघुमास और क्षुल्लक को भिन्नमास का प्रायश्चित्त है। ४४२६.अहवा जं वा तं वा, पाहुणगं गुरुमणुट्ठिह पावे। भिन्नं वसभो सुक्कं, भिक्खु लहू खुड्डए गुरुगा। अथवा जिस किसी प्राघूर्णक के लिए अभ्युत्थान न करने पर गुरु-आचार्य भिन्नमास को प्राप्त करता है, वृषभ शुक्लमास अर्थात् लघुमास, भिक्षु चतुर्लघु और क्षुल्लक चतुर्गुरुक को प्राप्त करता है। ४४२७.वायण-वावारण-धम्मकहण-सुत्तत्थचिंतणासुं च। वाउलिए आयरिए, बिइयादेसो उ भिन्नाई॥ प्रश्न होता है कि द्वितीय आदेश का प्रवर्तन क्यों? आचार्य कहते हैं-आचार्य को वाचना देनी होती है, साधुओं को वैयावृत्य आदि में नियोजित करना, धर्मकथा करना, स्वयं को सूत्रार्थ की अनुप्रेक्षा करना-इन कार्यों में आचार्य निरंतर व्याकुल रहते हैं। अन्य मुनि इतने व्याकुलित नहीं १. विनयः शिक्षाप्रणत्योः। (वृ. पृ. ११९६) बृहत्कल्पभाष्यम् रहते, इसलिए भिन्नमास आदि का यह द्वितीय आदेश प्रवृत्त हुआ है। ४४२८.वेसइ लहुमुढेइ य, धूलीधवलो असंफुरो खुड्डो। इति तस्स होति गुरुगा, पालेइ हु चंचलं दंडो॥ प्रश्न होता है कि बाल साधु को गुरुतम प्रायश्चित्त क्यों? बाल साधु लघु शरीर होने के कारण सुखपूर्वक उठबैठ सकता है। वह धूलीधवल अर्थात् रजोगुण्डित देह वाला तथा असंवृत होता है। वह चपल होता है फिर भी यदि प्राघूर्णक या गुरु आदि के आने पर अभ्युत्थान नहीं करता है तो उसे गुरु प्रायश्चित्त आता है। वह चंचल होने के कारण दीयमान दंड का पालन कर लेता है। ४४२९.जइ ता दंडत्थाणं, पावइ बालो वि पयणुए दोसे। ह णु दाणि अक्खमं णे, पमाइउं रक्खणा सेसे॥ दूसरे मुनि सोचते हैं यदि इस बाल मुनि को भी थोड़े से दोष पर भी इस 'दंडस्थान' गुरु दंड को प्राप्त करता है तो हमें प्रमाद करना उचित नहीं है। इस प्रकार शेष साधुओं की प्रमाद से रक्षा हो जाती है। ४४३०.दिलुतो दुवक्खरए, अब्भुट्टितेहिं जह गुणो पत्तो। तम्हा उद्वेयव्वो, पाहुणओ गच्छे आयरिओ॥ यहां व्यक्षर (दास) का दृष्टांत वक्तव्य है। जो अभ्युत्थान आदि करते हैं, वे गुणों को प्राप्त करते हैं, अतः साधुओं के भी प्राघूर्णक आचार्य के आने पर अभ्युत्थान करने पर इहपरत्र गुणकारी होता है। प्राघूर्णक आचार्य सकलगच्छ के द्वारा अभ्युत्थातव्य होता है। ४४३१.आराहितो रज्ज सपट्टबंध, कासी य राया उ दुवक्खरस्स। पसासमाणं तु कुलीयमादी, नादति तं तेण य ते विणीया॥ एक दास ने राजा की आराधना की। राजा ने प्रसन्न होकर उसको पट्टबंध राजा बना दिया। वह राज्य पर प्रशासन करने लगा। परंतु कुलीन आदि सामन्त उसके प्रशासन को आदर नहीं देते। तब उस राजा ने उन सबको विनीत किया अर्थात् सबको अनेक उपायों से दंडित कर शिक्षा दी, उनको प्रणत किया। ४४३२.सव्वस्सं हाऊणं, निज्जूढा मारिया य विवदंता। भोगेहिं संविभत्ता, अणुकूल अणुव्वणा जे उ॥ उस दास राजा ने प्रतिकूल व्यक्तियों का सर्वस्व हरण कर उन्हें नगर से निष्काशित कर दिया। जो विवाद करते उनको मार डाला। जो व्यक्ति अनुकूल और अगर्वित रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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