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तीसरा उद्देशक= इस युगल को विलग नहीं करना चाहिए। यहां 'रंगभूमी में ऋद्धिमान् पुरुषों' का दृष्टांत ज्ञातव्य है। रंगभूमी खचाखच दर्शकों से भरी है। इतने में ही राजा, अमात्य, श्रेष्ठी आदि ऋद्धिमान् पुरुष आ गए। उनको अपने-अपने योग्यस्थान पर बिठाया जाता है। पहले समागत लोग भी स्थान का संक्षेपीकरण कर वहीं समा जाते हैं। इसी प्रकार मुनिजनों के आने वाले प्राघूर्णक भी प्रधानपुरुष सदृश होते हैं अतः उन्हें उनके योग्य संस्तारकभूमी देकर सभी मुनियों को अवशिष्ट स्थान में संस्तारक दे दते हैं। यह कार्य वृषभ मुनि का होता है।
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए किइकम्मं करेत्तए॥
(सूत्र २०)
(सत्र
४४१४.संथारं दुरुहंतो, किइकम्मं कुणइ वातिगं सायं।
पातो वि य पणिवायं, पडिबुद्धो एक्कमेक्कस्स॥ मुनि सायं अपने संस्तारक पर आरूढ़ होते समय वाचिक कृतिकर्म 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' कहकर करता है और प्रातः जाग कर प्रत्येक रत्नाधिक मुनि को वन्दन करता है। ४४१५.किइकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं।
वंदणगं तहिं ठप्पं, अब्भुट्ठाणं तु वोच्छामि॥ कृतिकर्म (वंदनक) के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वंदनक। इन दोनों में से एक (वंदनक) स्थाप्य अर्थात् पश्चाद् कथनीय है। अभ्युत्थान के विषय में अभी कहूंगा। ४४१६.अब्भुट्ठाणे लहुगा, पासत्थाद-ऽण्णतित्थि-गिहिएसु।
__ अहछंद अण्णतित्थिणि, संजइवग्गे अ गुरुगा उ॥ पार्श्वस्थ, अन्यतीर्थिक तथा गृहस्थों के प्रति अभ्युत्थान करने पर चतुर्लघु तथा यथाच्छंद, अन्यतीर्थिनीयों तथा संयती वर्ग के प्रति अभ्युत्थान करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४४१७.उद्वेइ इत्थिं जह एस एंतिं
धम्मे ठिओ नाम न एस साहू। दक्खिन्नपन्ना वसमेइ चेवं,
मिच्छत्तदोसा य कुलिंगिणीसु॥ कोई मुनि आती हुई स्त्री को देखकर अभ्युत्थान करता है, तब देखने वाला श्रावक कहता है-यह मुनि धर्म में स्थित नहीं है। यह उस स्त्री का दाक्षिण्यवान् है। इससे वह उसका वशवर्ती होता है। इससे ब्रह्मचर्य की विराधना होती
= ४५५ है। तथा जो कुलिंगिनियां होती हैं-तापसी, परिव्रजिका आदि होती हैं उनके प्रति अभ्युत्थान करने से मिथ्यात्व आदि दोष होते हैं। ४४१८.ओभावणा पवयणे, कुतित्थ उब्भावणा अबोही य।
खिसिज्जंति य तप्पक्खिएहिं गिहिसुव्वया बलियं॥ अन्यतीर्थिकों के प्रति अभ्युत्थान करने पर प्रवचन की अपभ्राजना-निन्दा होती है, कुतीर्थ की प्रभावना होती है, अबोधि अर्थात् प्रवचन की लघुता तथा जो गृहस्थ सुव्रत-अणुव्रत धारक हैं उनकी शाक्य आदि पक्षपाती उपासकों द्वारा अत्यधिक खिंसना होती है, भर्त्सना होती है, वे कहते हैं हमारा दर्शन सर्वोत्तम है क्योंकि वह आपके गुरुओं के लिए भी गौरवाह है। ४४१९.एए चेव य दोसा, सविसेसयरऽन्नतित्थिगीसुं पि।
लाघव अणुज्जियत्तं, तहागयाणं अवन्नो य॥ ये ही दोष विशेषरूप से अन्यतीर्थिकी स्त्रियों के प्रति अभ्युत्थान करने से होते हैं। विशेषरूप से लाघव, अनूर्जितत्व-वराकत्व तथा तीर्थंकर आदि का अवर्णवाद होता है। ४४२०.पायं तवस्सिणीओ, करेंति किइकम्म मो सुविहियाणं।
एसुत्तिट्ठइ वतिणिं, भवियव्वं कारणेणेत्थं ।। संयतीयों के प्रति अभ्युत्थान करते हुए देखकर, शैक्ष सोचता है-प्रायः तपस्विनी संयतियां सुविहित मुनियों का कृतिकर्म करती हैं। यह मुनि संयती के प्रति अभ्युत्थान करता है। इसमें कोई न कोई कारण होना चाहिए। ४४२१.आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि तहेव होइ खुड्डे य।
गुरुगा लहुगा लहुगो, भिन्ने पडिलोम बिइएणं॥ आचार्य, अभिषेक, भिक्षु और क्षुल्लक-इन प्राघूर्णकों के आने पर यदि अभ्युत्थान नहीं किया जाए तो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह प्रायश्चित्त क्रमशः यह है-गुरुक, लघुक, लघुक
और भिन्नमास। दूसरे आदेश से यही प्रायश्चित्त प्रतिलोम के क्रम से कहना चाहिए। ४४२२.आयरियस्सायरियं, अणुट्ठियंतस्स चउगुरू होति।
वसभे भिक्खू खुड्डे, लहुगा लहुगो य भिन्नो य॥ प्राघूर्णक आचार्य के आने पर यदि आचार्य अभ्युत्थान नहीं करते तो प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। वृषभ द्वारा अभ्युत्थान न करने पर चतुर्लघु, भिक्षु द्वारा अभ्युत्थान न करने पर लघुमास और क्षुल्लक द्वारा अभ्युत्थान न करने पर भिन्नमास का प्रायश्चित्त है। ४४२३.सट्ठाण परट्ठाणे, एमेव य वसह-भिक्खु-खुड्डाणं।
जं परठाणे पावइ, तं चेव य सोहि सट्ठाणे।।
प्राण
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