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________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय ५४४० चारित्र के लिए गमन के दो प्रकार तथा प्रत्येक के ५४६७ असंविग्न मुनि के असंविग्न गच्छ में संक्रमण दो-दो प्रकार। करने की स्वच्छन्द विधि। ५४४१ किन कारणों से किन दशों में नहीं जाना चाहिए। ५४६८,५४६९ पार्श्वस्थ आदि पांच में से किसी एक के आने पर ५४४२ अशिव आदि कारणों से गए हुए साधुओं को आलोचना की विधि। वापिस लौटने का निर्देश] सूत्र २०,२१ ५४४३ गुरु को पूछकर कहां कब तक रहा जा सकता है? ५४७० गणावच्छेदी, गणी, आचार्य नियमतः गीतार्थ। ५४४४ अध्युपपन्न की स्थिति में आचार्य को पूछकर जाने सूत्र २२ का निर्देश। ५४७१ ज्ञान-दर्शन और चारित्र के लिए आचार्य आदि ५४४५ अविसर्जित शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। को उद्दिष्ट करने की आज्ञा। ५४४६,५४४७ आचार्य को व्युत्सृष्ट कर गमन करने से शिष्य, ५४७२ महाकल्पश्रुत की वाचना शिष्यत्व स्वीकार करने प्रतीच्छक और आचार्य-तीनों के प्रायश्चित्त का वाले को ही, यह मर्यादा जिनाज्ञा से बाहर। विधान। ५४७३ दर्शनार्थ उद्दिष्ट होने वाले ग्रंथ। चारित्रार्थ उद्दिष्ट ५४४८ आगाढ़ कारण में संविग्न अथवा असंविग्न को होने के प्रकार। आचार्य के बिना पूछे प्रस्थान का निर्देश। ५४७४ अवसन्न के छह प्रकार। ५४४९ चारित्र भ्रष्ट आचार्य का उपाय से परिहार का ५४७५ आचार्य पद योग्य शिष्य के व्यक्त-अव्यक्त की निर्देश। मार्गणा और व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी। सूत्र १७,१८ ५४७६ शिष्य द्वारा आचार्य को प्रेरित करने का कालमान ५४५० गणावच्छेदिक, उपाध्याय और आचार्य की अन्य और आचार्य के सर्वथा इन्कार करने पर स्वयं गण में जाने की विधि। गणावच्छेदिक नियमतः द्वारा गण का वर्तापन। व्यक्त। ५४७७ गण के लिए अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने से ५४५१ निग्रन्थियों के लिए उपर्युक्त विधि विहित। होने वाला परिणाम। ५४५२ ज्ञान के लिए अन्य गण में निग्रन्थी के जाने कि ५४७८,५४७९ गण का वर्तापन कब कैसे? लिए आठ पक्षों की पृच्छा। ५४८०-५४८४ गण के वर्तापन की चतुर्भगी। ५४८५,५४८६ संविग्न-अगीतार्थ, असंविग्न-अगीतार्थ, ५४५३-५४५७ एक मंडली में भोजन करने के कारण। चारित्र के असंविग्न-गीतार्थ इनको आचार्य के रूप में लिए उपसंपन्न की चतुभंगी ओर उनका विवरण। उद्दिष्ट करने पर प्रायश्चित्त विधि। ५४५८ गण से विलग गीतार्थ-अगीतार्थ मुनि के पुनः गण में आने पर आलोचना की विधि और उपधि ५४८७,५४८८ संविग्न गीतार्थ को उद्दीष्ट करने में अपेक्षणीय गुण। की मार्गणा। ५४८९-५४९० अवसन्न आचार्य को शिष्य द्वारा गण५४५९ गीतार्थ और अगीतार्थ मुनि के उपधि का उपहनन कब नहीं होता? वर्तापन के लिए निवेदन विधि। शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर। ५४६० किसे आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं आता? गीतार्थ और अगीतार्थ के उपधि के तीन प्रकार। ५४६१ ५४९१ ऋण से उऋण होने का उपाय। ५४६२ गीतार्थ की उपधि को अन्य उपधि में मिलाने न सूत्र २३,२४ मिलाने का कारण। ५४९२-५४९६ गणावच्छेदी और आचार्य के गणनिक्षेपण की ५४६३ संविग्न मुनि का संविग्न मुनि के गच्छ में संक्रमण विधि। विधि का प्रतिपादन। वीसुंभवण-पदं ५४६४-५४६६ संविग्न मुनि के असंविग्न गच्छ में संक्रमण करने सूत्र २५ के दोष। ५४९७ तीन कारणों से अन्य आचार्य के उद्देशन की ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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