________________
३६
बृहत्कल्पभाष्यम्
५५९३
गाथा संख्या विषय
विधि। आचार्य के कालगत होने पर अन्य
आचार्य का उद्देशन कैसे? ५४९८-५५६५ कालगत मुनि क परिष्ठापन की विधि तथा
मुनियों का कर्तव्य।
अहिगरण-पदं
सूत्र २६ ५५६६ मुनि कलह क्यों करता है? ५५६७ अधिकरण क्यों? ५५६८ अधिकरण करने पर उसका उपशमन और
आलोचना करने का निर्देश। ५५६९ अधिकरण करने वाले मुनि के अपसरण की
विधि। गुरु द्वारा वृषभ मुनि को गृहस्थ के पास
भेजने का निर्देश। ५५७०-५५७२ वृषभ मुनि को गृहस्थ के पास न भेजने से होने
वाली हानियां। ५५७३-५५७५ वृषभ मुनि द्वारा गृहस्थ को समझाने और
कलहकारी साधु को अपने साथ ले जाने की
विधि। ५५७६ गृहस्थ को उपशांत करने की अन्य विधि। ५५७७,५५७८ कलह को उपशांत किए बिना मुनि यदि भिक्षा
आदि के लिए गमन करे तो प्रायश्चित्त। गण संक्रमण करने वाले को पुनः उसी गण में रहने का
निर्देश क्यों? ५५७९
अनुपशान्त साधु के गणान्तर में संक्रान्त हो जाने पर मूल आचार्य द्वारा संघाटक को भेजने की
विधि। नहीं भेजने पर प्रायश्चित्त। ५५८० गृहस्थ के उपशांत होने पर क्षमायाचना का
निर्देश। ५५८१,५५८२ गृहस्थ के प्रति अनिष्ट चिंतन, मारने आदि का
संकल्प करने पर प्रायश्चित्त। ५५८३ मुनि को आया हुआ देखकर गृहस्थ के द्वारा
मारण-ताड़न आदि अनिष्ट की संभावना। परिहारकप्पट्ठिय-पदं
सूत्र २७,२८ ५५८४,५४८५ साधु के गृहस्थ के घर एकाकी जाने की वर्जना।
साथ में किसी अन्य को ले जाने का प्रावधान। ५५८६,५५८७ भिक्षु के मन में हिंसा के विविधि प्रकारों में भिन्न-
भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान। गणी-उपाध्याय, आचार्य तथा गणावच्छेदिक के लिए भी नियमतः अनेक प्रायश्चित्त।
गाथा संख्या विषय ५५८८ तप और काल से प्रायश्चित्तों में नानात्व। ५५८९,५५९० सूत्र द्वारा प्रायश्चित्त की प्रस्थापना का निर्देश। ५५९१ सूत्रादेश से अधिक या न्यून प्रायश्चित्त देने पर
देने वाले को प्रायश्चित्त। ५५९२ अधिकरण के आपवादिक कारण। स्वयं असमर्थ
हो तो पांच पदों की सहायता लेने का निर्देश। प्रत्यनीक पर अनुशासन करने वाले में अपेक्षणीय
गुण। ५५९४
परिहार तप को वहन करने वाले की मर्यादा। ५५९५ नियमतः परिहारतप का प्रायश्चित्त किसको? ५५९६ परिहार तप क्यों? ५५९७,५५९८ परिहारतप को स्वीकार करने पर मुनि की
साधना-विधि। ५५९९ गच्छ साधुओं को दस पदों का आचरण करने पर
प्राप्त होने वाला विविध प्रायश्चित्त। ५६०० गच्छवासी साधुओं के साथ दस पदों का
समाचरण करने वाले पारिहारिक मुनि को आने
वाला प्रायश्चित्त। ५६०१ दस पदों को पारिहारिक मुनि के साथ करने पर
लगने वाले दोष। ५६०२-५६१३ पारिहारिक मुनि के प्रति आचार्य तथा मुनियों का
व्यवहार एवं कर्तव्य। ५६१४-५६१७ गच्छ में आगाढ़ कारण होने पर पारिहारिक मुनि
का कर्तव्य।
महानदी-पदं
सूत्र २९ ५६१८ स्थलगत मार्ग में पानी होने पर मुनि का कर्तव्य। ५६१९-५६२५ पांच महानदियों के नाम तथा नौका आदि से
उनको पार करने पर लगने वाले दोष और
प्रायश्चित्त विधि। मुरुंडराजा का दृष्टान्त। ५६२६ अन्तःपुर में जाने पर लगने वाले दोष। ५६२७,५६२८ प्रत्यनीकता विषयक विविध दोषों का वर्णन और
तद्विषयक महावीर-सुदाढा और कम्बल-शबल
का उदाहरण। ५६२९-५६३५ प्रत्यनीक के दोष तथा उससे होने वाली संयम
तथा आत्मविराधना। ५६३६,५६३७ महानदी उत्तरणविषयक संघट्ट, लेप, लेपोपरि-ये
तीन प्रकार और उनसे लगने वाले दोष।
सूत्र ३० ५६३८ ऐरावती नदी को पार करने की विधि। मास कल्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org