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________________ ३४ गाथा संख्या विषय ५३६३,५३६४ तीन स्थानों-कारणों से गण से अपक्रमण करने की विधि, तथा उनसे लगने वाले अतिचार। ५३६५-५३७७ किस अतिचार से आने वाला कौनसा प्रायश्चित्त। उनका स्वरूप। ५३७८-५३८१ आने वाले शैक्ष को अभिघारित आचार्य के पास भेजने की विधि। ५३८२ प्रतीच्छक द्वारा गृहीत सचित्तादि किसका आभाव्य? ५३८३ आगन्तुक शैक्ष के साथ स्वयंदिग्बंध कब करे? ५३८४ अकेले आचार्य को परिषद् ग्रहण करने की अनुमति। ५३८५ अभिघारित आचार्य के कालगत हो जाने पर अन्य आचार्य के पास जाना भी शुद्ध । ५३८६ प्रतीच्छक के प्रकार और उनका लाभ। ५३८७ व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी। ५३८८,५३८९ सहायक साधु के प्रकार और उनका कर्तव्य। ५३९० एकाकी जाने वाले शैक्ष द्वारा गृहीत द्रव्य किसका आभाव्य? ५३९१,५३९२ एकाकी जाने वाला शैक्ष यदि रुग्ण हो जाए और दो आचार्य उसकी सुखपृच्छा करने के लिए आए तो वह तथा उसके द्वारा गृहीत द्रव्य का कौन आभाव्य होगा? ५३९३,५३९४ आचार्य द्वारा विसर्जित शिष्य के आभाव्य की मर्यादा। ५३९५ आचार्य द्वारा अविसर्जित शिष्य यदि गमन करता है तो प्रायश्चित्त का भागी। ५३९६ आचार्य के द्वारा शिष्य को विसर्जित न करने पर आचार्य को अनुकूल वचनों से प्रज्ञापित करने का निर्देश। ५३९७ ज्ञान के निमित्त गण से अपक्रमण करने वाले शिष्य को आचार्य द्वारा विसर्जित नहीं करने पर अविसर्जित प्रस्थान करने की विधि। ५३९८ अविसर्जित विधि से आए शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। ५३९९,५४०० आचार्य को व्युत्सर्ग कर गमन करने से शिष्य, प्रतिच्छक और आचार्य तीनों को प्रायश्चित्त। ५४०१-५४०३ ज्ञानार्थ दूसरे गच्छ में प्रस्थान करने के आपवादिक कारण। ५४०४ अनाभाव्य के साथ आत्मीय दिग्बंध कब? बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ५४०५ शैक्ष को शिष्य के रूप में स्वीकृत करने के कुछ मानदंड। ५४०६ आचार्य के कालगत हो जाने पर शैक्ष और प्रतीच्छक द्वारा गण की सार-संभाल। ५४०७ आचार्य के कालगत होने पर वर्षगत आभाव्य की मार्गणा। ५४०८,५४०९ क्षेत्रोपसंपन्न और सुखदुःखोपसंपन्न को मिलने वाला लाभ। ५४१०-५४१७ आभाव्य कब? किसका? ५४१८ शिष्य का निर्माण कैसे? ५४१९ निर्माण न होने के कारण कुलस्थविर का कर्तव्य ? ५४२०,५४२१ प्रव्रज्या के एकपाक्षिक कौन ? उनका कार्य। ५४२२ एकपाक्षिक होने के कारण। ५४२३ उपसंपदा के पांच प्रकार और उनका आभवद् व्यवहार। ५४२४ निकट के व्यक्तियों से उपसंपदा ग्रहण करने का कारण। ५४२५ दर्शन की प्रभावना के लिए अन्य गण में गमन। ५४२६-५४२९ वाद में आचार्य द्वारा मौन रहने पर शिष्य दर्शन शास्त्र का अध्ययन कर पुनः वाद में समीचिन उत्तर दे। ५४३०-५४३२ शिष्य द्वारा आचार्य को छेद सूत्र की वाचना के लिए निवेदन करना और अन्यत्र एकान्त में जाने के लिए कहना। न मानने पर गहरी नींद में उठा कर ले जाना। ५४३३ शिष्य द्वारा शास्त्रों का अध्ययन कर आचार्य को निह्नवों से छुड़ाने का प्रयत्न। ५४३४ विधि से गमन ही श्रेयस्कर। अविधि में प्रायश्चित्त। दर्शन के प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए तीन पक्षों को पूछकर अन्य गण में जाने का निर्देश। ५४३६ अविसर्जित विधि से आए शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। ५४३७,५४३८ आचार्य को व्युत्सर्ग कर गमन करने से शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्य तीनों को प्रायश्चित्त। ५४३९ ज्ञान के लिए गच्छान्तर में प्रस्थान करने के आपवादिक कारण। ५४३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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