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चौथा उद्देशक
५२१ सहित) सुखपृच्छा करते हैं। सूत्र और अर्थ की वाचना देकर ५०४४.जाणंता माहप्पं, सयमेव भणंति एत्थ तं जोग्गो। पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले के पास आते हैं और
अत्थि मम एत्थ विसओ, अजाणए सो व ते बेति॥ उसके शरीर की वार्तमानिकी वार्ता को पूछते हैं। वह भी उपाध्याय आदि उस पारांचिक के माहात्म्य को जानते आचार्य को 'मस्तक से वंदना करता हूं'-यह कहता हुआ हुए स्वयं उसे कहते हैं-इस प्रयोजन के लिए तुम योग्य हो। फेटावन्दनक से वंदना करता है। वह यदि तप से क्लान्त कुछ उद्यम करो। यदि उसकी शक्ति को नहीं जानते तब वह होता है तो आचार्य उसे आश्वस्त कर उसी क्षेत्र में आ जाते स्वयं उनको कहता है-यह मेरा विषय है। हैं जहां गच्छ रहता है।
५०४५.अच्छउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसयागरो संघो। ५०४०.असहू सुत्तं दातुं, दो वि अदाउं व गच्छति पए वि। गुरुगं पि इमं कज्जं, मं पप्प भविस्सए लहुयं ।।
संघाडओ से भत्तं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं॥ सैकड़ों गुणों का आकर संघ जो अचिन्त्य महिमा वाला है यदि आचार्य सूत्र और अर्थ की वाचना देने में असमर्थ हों वह सुखपूर्वक अखंड रहे। यह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु तो केवल सूत्र की वाचना देकर जाए। यदि वैसा भी न हो सके हो जाएगा। मैं इस कार्य को सहजता से कर डालूंगा। उसको तो वाचना दिए बिना ही प्रातःकाल उस पारांचिक प्रायश्चित्त उस कार्य की निष्पत्ति के लिए नियुक्त करने पर....... वहन करने वाले आचार्य के पास चले जाएं। उनके पीछे-पीछे ५०४६.अभिहाण-हेउकुसलो बहसु नीराजितो विउसभासु। ही मुनियों का एक संघाटक भक्त-पान लेकर आता है।
गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारटुं। ५०४१.गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो। ५०४७.पडिहाररूवी! भण रायरूविं, कालम्मि दुब्बले वा, कज्जे अण्णे व वाघातो॥
तमिच्छए संजयरूवि दहूँ। कदाचित् आचार्य न भी जाएं, उसके ये कारण हो सकते निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, हैं-आचार्य रोग से स्पृष्ट हो गए हों, ग्लानत्व से अभी अभी
जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे॥ मुक्त हुए हों, अथवा उस समय दुर्बलता अत्यधिक हो, अन्य वह अभिधान ओर हेतुकुशल (शब्द और तर्कशास्त्र में किसी कार्यवश गमन में व्याघात हो रहा हो। वे कार्य क्या हो निपुण) पारांचिक मुनि जिसने अनेक विद्वद् सभाओं में सकते हैं?
विजय प्राप्त की थी, वह राजभवन में गया और तत्रस्थित ५०४२.वायपरायण कुवितो, चेइय-तहव्व-संजतीगहणे।। द्वारपाल से बोला-हे प्रतीहाररूपिन्! तुम जाकर राजरूपिन्
पुव्वुत्ताण चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अन्नयरं॥ से कहो कि एक संयतरूपिन् तुमको देखना चाहता है। वाद पराजय से राजा कुपित हो गया हो, चैत्य- वह प्रतिहारी भीतर गया और पार्थिव से उसी प्रकार कहा जिनायतन को अवष्टंभ से मुक्त कराने के लिए अथवा और पार्थिव के कथनानुसार उस संयती को नृप के पास चैत्यद्रव्य संयती ने ग्रहण कर लिया हो, उसको मुक्त कराने प्रवेश कराया। के लिए अथवा पूर्वोक्त अर्थात् पहले उद्देशक (गाथा ३१२१) ५०४८. तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, में प्रतिपादित चार कार्यों में कोई कार्य आ गया हो
पुच्छिंसु रायाऽऽगयकोउहल्लो। (१) राजा ने मुनियों को राज्य से बाहर निर्गमन का पण्हे उराले असुए कयाई, आदेश दे दिया हो।
स चावि आइक्खइ पत्थिवस्स। (२) भक्तपान का निषेध कर दिया हो।
साधु को वंदना कर राजा ने उसे शुभ आसन पर बिठा (३) उपकरण-हरण कर दिया हो।
कर कुतूहलवश साधु से उदार-गंभीर अर्थ वाले तथा कभी (४) मृत्यु अथवा चारित्र के भेद की बात कही हो। भी न सुने हुए शब्दों का अर्थ पूछा। इन कार्यों से आचार्य नहीं भी जा सकते।
५०४९.जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो। ५०४३.पेसेइ उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो।
तुह राय! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी॥ पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स चावि दीवेति तं कज्जं॥ तब साधु बोला-राजन्! जैसे आत्मरक्षक शक्र आदि के आचार्य स्वयं न जा पाने की स्थिति में उपाध्याय को होते हैं वैसा आपका यह द्वारपाल नहीं है, इसलिए मैंने अथवा गीतार्थ मुनि को जो योग्य हो उसे भेजते हैं। पारांचिक कहा-हे प्रतिहाररूपिन्! राजन्! तुम भी जैसे चक्रवर्ती होता मुनि के पूछने या न पूछने पर भी आचार्य के अनागमन का है वैसे नहीं हो। तुम भी चक्रवर्ती के प्रतिरूपी हो, इसलिए कारण बताते हैं।
मैंने कहा राजरूपिन्।
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