________________
५२०
बृहत्कल्पभाष्यम्
जाता है। शेष अर्थात् कषायदुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्यसेवी-ये होता है। इसलिए इत्वर गणनिक्षेप आत्मतुल्य शिष्य में करके नियमतः लिंगपारांचिक किए जाते हैं।
आचार्य अन्य गण में जाकर वहां प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, ५०२८.इंदिय-पमाददोसा, जो पुण अवराहमुत्तमं पत्तो। भाव की आलोचना परगण के आचार्य के पास करे। दोनों
सम्भावसमाउट्टो, जति य गुणा से इमे होंति॥ आचार्य निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग करें। जो मुनि इन्द्रियदोष-प्रमाददोष से उत्कृष्ट अपराधपद को ५०३४.अप्पच्चय णिब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। प्राप्त होता है, वह यदि सद्भावसमावृत अर्थात् पुनः ऐसा नहीं
परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव॥ करूंगा-इस निश्चय से युक्त होता है, उसे तपःपारांचिक अपने गण में पारांचिक स्वीकार करने पर अगीतार्थ किया जाता है। यदि उसके ये गुण हों तो
मुनियों का आचार्य के प्रति अविश्वास होता है। वे निर्भय हो ५०२९.संघयण-विरिय-आगम-सुत्त-ऽत्थ
जाते हैं। अपने गण में आज्ञाभंग और अयंत्रणा होती है। विहीए जो समग्गो तु। परगण में ये दोष नहीं होते। वहां भगवान् की आज्ञा-पालन में तवसी निग्गहजुत्तो,
स्थिरता आती है तथा आत्मा में भय भी रहता है। पवयणसारे अभिगतत्थो॥ ५०३५.जिणकप्पियपडिरूवी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो। संहनन-वज्रऋषभनाराच हो, वीर्य-धृति हो, आगम विहरति बारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो।। अर्थात् नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक सूत्रतः और 'जिनकल्पिकप्रतिरूपी अर्थात् अलेपकृत भिक्षा लेनी अर्थतः परिचित हो, इन सबकी विधि से जो संपूर्णरूप से चाहिए, तीसरे प्रहर में पर्यटन करना चाहिए'-इस जिनकल्प भावित हो, तपस्वी हो, निग्रहयुक्त हो, प्रवचन के सारभूत चर्या का पालन करता हुआ, क्षेत्र से बाहर रहकर वह अर्थ के रहस्यों का ज्ञाता हो।
एकाकी ध्यान में संयुक्त होकर बारह वर्ष बिताता है। ५०३०.तिलतुसतिभागमित्तो,
५०३६.ओलोयणं गवेसण, आयरितो कुणति सव्वकालं पि। वि जस्स असुभो ण विज्जती भावो।
उप्पण्णे कारणम्मि, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ निज्जूहणाइ अरिहो,
जब तक पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करता है, उस सेसे निज्जूहणा नत्थि॥ समस्त काल में आचार्य प्रतिदिन उसके पास जाकर उसका जिसके गच्छ से निर्मूढ़ हो जाने पर भी जिसके अवलोकन करते हैं, दर्शन करते हैं और उसके योगक्षेम की तिलतुषमात्र का भी अशुभभाव मन में नहीं आता, ऐसा मुनि पृच्छा करते हैं। कारण अर्थात् ग्लानत्व आदि उत्पन्न होने पर नि!हण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित व्यक्ति नि!हणा आचार्य स्वयं सर्वप्रयत्नपूर्वक उसके भक्तपान की व्यवस्था के योग्य नहीं होते।
करते हैं। ५०३१.एयगुणसंपजुत्तो, पावति पारंचियारिहं ठाणं। ५०३७.जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमाएणं। एयगुणविप्पमुक्के, तारिसगम्मी भवे मूलं।
आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुवनिद्दिट्ठा। इन गुणों से युक्त व्यक्ति पारांचिक योग्य स्थान को प्राप्त जो आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं, तो करता है। इन गुणों से विप्रमुक्त व्यक्ति यदि पारांचिकापत्ति उन्हें पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा करनी चाहिए। प्राप्त करता है फिर भी उसको मूल प्रायश्चित्त ही प्राप्त ५०३८.आहरति भत्त-पाणं उव्वत्तणमाइयं पि से कुणति। होता है।
सयमेव गणाहिवई, अह अगिलाणो सयं कुणति॥ ५०३२.आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस तु मासे। पारांचिक यदि ग्लान हो गया हो तो गणाधिपति-आचार्य
वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भतिओ॥ स्वयं भक्तपान लाते हैं। उसका उद्वर्तन, परावर्तन आदि आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः । करते हैं। जब वह स्वस्थ हो जाता है तो वह ये सारी क्रियाएं बारह मास तक गच्छ से नियूंढ रहता है। प्रतिसेवना- स्वयं करता है। पारांचिक जघन्यतः एक संवत्सर तक तथा उत्कृष्टतः बारह ५०३९.उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, संवत्सर पर्यन्त संघ से निढूँढ रहता है।
वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। ५०३३.इत्तिरियं णिक्खेवं, काउं अण्णं गणं गमित्ताणं।
आसासइत्ताण तवोकिलंतं, __दव्वादि सुभे विगडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥
तमेव खेत्तं समुवेति थेरा।। जो पारांचिक स्वीकार करता है वह नियमतः आचार्य आचार्य शिष्य तथा प्रतीच्छकों को सप्रतिपृच्छा (उत्तर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org