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________________ चौथा उद्देशक ५०१९.मोयगभत्तमलछु, भंतु कवाडे घरस्स निसि खाति। भाणं च भरेऊणं, आगतो आवासए विगडे॥ ___ एक साधु गोचरी में भिक्षा के लिए घूम रहा था। उसने एक घर में मोदकभक्त देखा। याचना करने पर भी उसे नहीं मिला। रात्री में वह वहां गया और कपाटों को तोड़कर मोदक खाने लगा। शेष मोदकों से पात्रों को भरकर उपाश्रय में ले आया। प्राभातिक आवश्यक में वह आलोचना करता है कि मैंने ऐसा स्वप्न देखा था। प्रभात में मोदक से भरे पात्र को देखकर जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रतिफल है। ५०२०.अवरो फरुसग मुंडो, मट्टियपिंडे व छिंदिउं सीसे। ____एगते अवयज्झइ, पासुत्ताणं विगडणा य॥ ___एक कुंभकार मुंडित-प्रव्रजित हो गया। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ और वह पूर्वाभ्यास के कारण मृत्तिकापिंड को छेदने की भांति पास में सोए हुए साधुओं के शिरों का छेदन करने लगा। उनको एकान्त में रखने लगा। बाद में वह स्वयं भी सो गया। प्रातःकाल आलोचना की कि उसने स्वप्न देखा है। यह सारा स्त्यानर्द्धि का फल था। ५०२१.अवरो वि धाडिओ मत्तहत्थिणा पुरकवाडे भंतूणं। तस्सुक्खणित्तु दंते, वसही बाहिं विगडणा य॥ कोई एक साधु भिक्षा के लिए जा रहा था। एक मत्त हाथी ने उसे सूंड से पकड़ कर उछाल दिया। साधु के मन में हाथी के प्रति प्रद्वेषभाव उत्पन्न हो गया। उस साधु के स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ। रात्री में वह उठा। नगर के दरवाजे तोड़कर वह हस्तिशाला में गया और उस हाथी के दांत उखाड़ कर वसति के बाहर उन्हें रखकर सो गया। प्रभात में उसने स्वप्न की आलोचना की। सारी स्थिति ज्ञात हो गई। ५०२२.उब्भामग वडसालेण घट्टितो केइ पुव्व वणहत्थी। वडसालभंजणाऽऽणण, उस्सग्गाऽऽलोयणा गोसे॥ एक बार मुनि उद्भ्रामक भिक्षा के लिए मूलगांव से पास वाले गांव में गया। रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष था। वह भिक्षाचरी कर आ रहा था। अचानक उस वटवृक्ष की शाखा से उसका सिर टकरा गया। प्रचुर पीड़ा हुई। वटवृक्ष के प्रति मन में प्रद्वेष जाग उठा। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा की उदीरणा हुई और वह उठकर वटवृक्ष के पास गया। वटवृक्ष को उखाड़ कर उसकी शाखा को तोड़कर, उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। प्रातः उत्सर्ग-कायोत्सर्ग के समय आलोचना की। सचाई का पता लग गया। __ कुछ आचार्य कहते हैं-वह पूर्वभव में वनहस्ती था। मनुष्य ५१९ भव में उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। पूर्वभव के अभ्यास से उसने वटवृक्ष की शाखा को तोड़ डाला। ५०२३.केसवअद्धबलं पण्णवेति मुय लिंग णत्थि तुह चरणं। णेच्छस्स हरइ संघो, ण वि एक्को मा पदोसं तु॥ तीर्थंकर आदि कहते हैं कि स्त्यानर्द्धि नींद वाले व्यक्ति में केशव अर्थात् वासुदेव के बल से आधा बल होता है। यह प्रथम संहननी की अपेक्षा से कहा है। वर्तमान में उसमें सामान्य मनुष्य के बल से दुगुना, तीन गुना, चार गुना बल होता है। स्त्यानर्द्धि वाले को कहे-तुम साधु वेश को छोड़ दो। तुम्हारे में चारित्र नहीं है। यदि वह वेश छोड़ना नहीं चाहता तो संघ उसके वेश का हरण कर देता है। संघ में एक नहीं अनेक व्यक्ति होते हैं, इसलिए एक पर उसका प्रद्वेष नहीं होता। ५०२४.अवि केवलमुप्पाडे, न य लिंगं देति अणतिसेसी से। देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणिच्छे पलायंति॥ अनतिशायीज्ञानी यह संभावना करता है कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला मुनि इसी भव में केवलज्ञानी होगा, फिर भी वह उसको लिंग नहीं देता। उसका लिंगापहार करते समय उसे कहते हैं-तुम देशव्रत स्वीकार करो अथवा दर्शनसम्यक्त्व ग्रहण कर लो। यदि वह लिंग को छोड़ना नहीं चाहता तो अन्य मुनि रात्री में उसे सोया हुआ छोड़कर देशान्तर में चले जाएं। ५०२५.करणं तु अण्णमण्णे, समणाण न कप्पते सुविहिताणं। जे पुण करेंति णाता, तेसिं तु विविंचणा भणिया। सुविहित श्रमणों को परस्पर करण-मुख-पायुप्रयोग से सेवन करना नहीं कल्पता। जो करते हैं, उनकी जानकारी हो जाने पर उनका विवेचन-परित्याग कर देना चाहिए। ५०२६.आसग-पोसगसेवी, केई पुरिसा दुवेयगा होति। तेसिं लिंगविवेगो, बितियपदं रायपव्वइते॥ जो मुख और पायु का सेवन करने वाले होते हैं, वे कुछेक पुरुष साधु द्विवेदक-स्त्री-नपुंसक वेद वाले होते हैं, उनका लिंग-विवेक कर देना चाहिए। इसमें अपवादपद यह है कि जो राजप्रव्रजित मुख-पायु सेवी हो तो उसका यतनापूर्वक परित्याग कर देना चाहिए। ५०२७.बिइओ उवस्सयाई, कीरति पारंचितो न लिंगातो। अणुवरमं पुण कीरति, सेसा नियमा तु लिंगाओ।। द्वितीय अर्थात् विषयदुष्ट मुनि को उपाश्रय आदि क्षेत्रतः पारांचिक किया जाता है, लिंग से नहीं। यदि वह दोषों से अनुपरत होता है तो उसे लिंग से भी पारांचिक कर दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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