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बृहत्कल्पभाष्यम्
५१८ सभी तीर्थंकरों की आर्याओं की तथा संघ की आशातना करता है। ५००९.पावाणं पावयरो, दिट्ठिऽब्भासे वि सो ण वट्टति हु। ___ जो जिणपुंगवमुई, नमिऊण तमेव धरिसेति॥
वह सभी पापियों में पापतर होता है। वैसे व्यक्ति को दृष्टि के सामने भी नहीं रखना चाहिए जो जिनपुंगवमुद्रा को धारण करने वाली श्रमणी को नमस्कार करके, उसी को भ्रष्ट करता है। ५०१०.संसारमणवयग्गं, जाति-जरा-मरण-वेदणापउरं।
पावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेणं॥ जो साक्षात् जिनमुद्रा-श्रमणी को भ्रष्ट करता है, वह जन्म, जरा, मरण और वेदना से संकुल तथा पापमलपटल से आच्छन्न इस अपार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। ५०११.जत्थुप्पज्जति दोसो, कीरति पारंचितो स तम्हा तु।
सो पुण सेवीमसेवी, गीतमगीतो व एमेव॥ जिस क्षेत्र में जिसके संयती के धर्षण आदि का दोष उत्पन्न हुआ है या होगा उसे उस क्षेत्र से पारांचिक कर दिया जाता है। वह उस दोष का सेवी या असेवी हो सकता है, वह गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है उसे संपूर्ण रूप से पारांचिक कर देना चाहिए। ५०१२.उवस्सय कुले निवेसण, वाडग साहिगाम देस रज्जे वा। __कुल गण संघे निज्जूहणाए पारंचितो होति॥
जिस उपाश्रय में, कुल में, निवेसन में, पाटक में, साही में-शालारूप में श्रेणीक्रम से स्थित गांव के घरों की एक
ओर की श्रेणी में, गांव में, देश में या राज्य में दोष उत्पन्न होता है वहां से उस व्यक्ति को पारांचिक कर दिया जाता है। जो कुल से, गण से या संघ से अलग कर दिया जाता है वह क्रमशः कुलपारांचिक, गणपारांचिक तथा संघपारांचिक कहलाता है। ५०१३.उवसंतो वि समाणो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु।
हंदि हु पुणो वि दोसं, तट्ठाणासेवणा कुणति॥ प्रश्न होता है कि साधक को उपाश्रय आदि स्थानों से पारांचिक क्यों किया जाता है? ग्रंथकार कहते हैं-साधक को उपशांत हो जाने पर भी उन-उन स्थानों में विहार करने या जाने का निषेध किया जाता है क्योंकि उस स्थान में पुनः जाने से वही दोष पुनः हो सकता है।
५०१४.जेसु विहरंति तातो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु।
पढमगभंगे एवं, सेसेसु वि ताई ठाणाई॥ जिस ग्राम या जिन स्थानों में संयतियां विहरण करती हैं, उन स्थानों में विहरण करने के लिए संयत की वर्जना की जाती है। यह प्रथम भंग की बात है-स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट। शेष द्वितीय आदि भंगों में वे स्थान भी वर्जनीय हैं। ५०१५.एत्थं पुण अहिगारो, पढमगभंगेण दुविह दुढे वी।
उच्चारियसरिसाई, सेसाई विकोवणट्ठाए। यहां द्विविध दुष्ट अर्थात् कषाय से तथा विषय से दुष्ट प्रथम भंग का अधिकार है। शेष द्वितीय भंग आदि उच्चारित सदृश हैं। वे शिष्य की मति को कुरेदने के लिए कहे गए हैं। ५०१६.कसाए विकहा विगडे, इंदिय निदा पमाद पंचविधो।
अहिगारो सुत्तम्मि, तहिगं च इमे उदाहरणा।। पांच प्रकार का प्रमाद है-कषाय, विकथा, विकट-मद्य, इन्द्रिय, निद्रा। निशीथ सूत्र की पीठिका में इनका विस्तार से वर्णन है। यहां सुप्त अर्थात् निद्रा का अधिकार है। निद्रा के पांच प्रकार हैं-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि।' ५०१७.पोग्गल मोयग फरुसग, दंते वडसालभंजणे सुत्ते।
एतेहिं पुणो तस्सा, विविंचणा होति जतणाए। प्रस्तुत में पारांचिक का प्रसंग है। यहां स्त्यानर्द्धि निद्रा का अधिकार है। उसके ये उदाहरण हैं-पुद्गल-मांस, मोदक, कुंभकार, दांत, वटवृक्ष की शाखा को तोड़ना। इन लक्षणों से स्त्यानर्द्धि को जानकर उस साधु का यतनापूर्वक परित्याग कर देना चाहिए। ५०१८.पिसियासि पुव्व महिसं,
विगच्चियं दिस्स तत्थ निसि गंतुं। अण्णं हंतुं खायति,
उवस्सयं सेसगं णेति॥ कोई एक व्यक्ति गृहवास में मांसभक्षी था। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार उसने एक महिष को काटते हुए देखा और उसको उस महिष के मांस खाने की लालसा उत्पन्न हो गई। वह उपाश्रय में सो गया। वह रात्री में महिषमंडल में गया और एक अन्य महिष को मारकर खाने लगा। जो मांस बचा उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। यह सारा स्त्यानर्द्धि नींद में उसने किया।
सुहपडिबोहो निद्दा, दुहपडिबोहो य निहनिहा। पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला उ चंकमतो॥
-जिससे जागना सुखपूर्वक होता है वह है निद्रा, जिससे जागना कष्टप्रद होता है वह है निद्रानिद्रा, जो बैठे या खड़े-खड़े नींद आती है
वह है प्रचला और जो गमन करते नींद आती है वह है प्रचलाप्रचला। स्त्यानद्धि निद्रा का अर्थ है-प्रबलदर्शनावरणीयकर्म के उदय से ऋद्धि-चैतन्यशक्ति कठिनीभूत होकर जम जाती है, तब जानने की शक्ति जागृत नहीं रहती, कुछ भी भान नहीं रहता।
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