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चौथा उद्देशक
पात्र में ग्रहण करना चाहिए। ग्रहण और निमंत्रण में जो विधि है, वह सारी करनी चाहिए। आचार्य यतनापूर्वक भोजन करते हैं अयतनापूर्वक भोजन करने से ये दोष आपादित होते हैं। ४९९९.सव्वेहि वि गहियम्मी, थोवं थोवं तु के वि इच्छंति । सव्वेसिं ण वि भुंजति, गहितं पि बितिज्ज आदेसो ॥ आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य सभी शिष्य लाते हैं। आचार्य उनमें से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण कर लेते हैं। यह पहला आदेश है। कुछेक आचार्य कहते हैं- एक ही शिष्य को गुरु- प्रायोग्य द्रव्य लाना चाहिए। सबका लाया हुआ गुरु नहीं खा पाते। यह दूसरा आदेश है।
५०००. गुरुभत्तिमं जो हिययाणुकूलो,
सो गिण्हती णिस्समणिस्सतो वा । तस्सेव सो गिण्डति णेयरेसि,
अलब्भमाणम्मि व थोव धोवं ।। जो शिष्य गुरुभक्ति से ओतप्रोत होता है, जो गुरु के हृदय के अनुकूल वर्तन करता है, जो गुरु के प्रायोग्य द्रव्यों को निश्रागृहों अथवा अनिश्रागृहों से ग्रहण करता है, उसी से आचार्य भक्तपान ग्रहण करते हैं, दूसरों से नहीं यदि एक से पर्याप्त ग्रहण नहीं होता तो थोड़ा-थोड़ा सभी से ग्रहण करते हैं।
५००१. सति लंभम्मि वि गिण्हति इयरेसिं जाणिऊण निब्बंधं ।
मुंचति य सावसेसं, जाणति उवयारभणियं च ॥ प्रचुर लाभ होने पर भी दूसरे साधुओं का आग्रह देखकर आचार्य उनका लाया हुआ भी लेते हैं। उनका आनीत भोजन करते हुए भी अवशिष्ट छोड़ते हैं। वे जानते हैं कि कौन उपचार से निमंत्रित करता है और कौन सद्भावना से ५००२. गुरुणो (णं) भुत्तुव्वरियं, बालादसतीय मंडलिं जाति ।
जं पुण सेसगगहितं गिलाणमादीण तं विंति ॥ गुरु के भोजन कर लेने पर जो बचता है, उसे बाल मुनियों को दे दिया जाता है। उनके अभाव में उसे मंडली पात्र में डाल देते हैं। जिस भक्तपान को शेष मुनियों ने पात्रों में ग्रहण किया है उसको ग्लान आदि को दे दिया जाता है। ५००३. सेसाणं संसठ्ठे, न छुम्भती मंडली पडिम्गहए ।
पत्तेग गहित छुब्भति, ओभासणलंभ मोत्तूणं ॥ गुरु व्यतिरिक्त शेष साधुओं का संसृष्ट- अवशिष्ट भक्तपान मंडलीपात्र में नहीं डाला जाता। जो भक्तपान ग्लान आदि के लिए पृथक्-पृथक् पात्रों में गृहीत है, उसमें से बचा हुआ मंडली पात्र में डाल दिया जाता है। परंतु अवभाषितप्रगट लाभ को छोड़ कर शेष उसमें डाला जाता है।
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५००४. पाहुणगडा व तगं, धरेत्तुमतिबाहडा विगिंयंति। इह गहण - भुंजणविही, अविधीए इमे भवे दोसा ॥ अतिथियों के लिए तथा ग्लान के लिए लाया हुआ प्रायोग्य द्रव्य स्थापित कर यदि अत्यधिक हो तो उसे परिष्ठापित कर देते हैं। यह ग्रहण और भोजनविधि है। अविधि में ये दोष होते हैं।
५००५. तिब्वकसायपरिणतो, तिब्वतरागाई पावइ भयाई । मयगस्स दंतभंजण, सममरणं ठोक्कणुग्गिरणा ॥ तीव्र कषाय में परिणत जीव तीव्रतर भयों को प्राप्त होता है। प्रथम दृष्टांत में लोभ परिणत मृत आचार्य का दन्तभंजन, दूसरे दृष्टांत में तीव्र क्रोध परिणत आचार्य और शिष्य का सम-मरण, तीसरे दृष्टांत में आंखों को उखाड़ कर प्रस्तुत करना और चौथे दृष्टांत में दंडक को उठा कर शरीर को कूटना। यहां कषायदुष्ट का प्रकरण समाप्त हुआ। आगे विषयदुष्ट का प्रकरण चालू होता है।
५००६. संजति कप्पट्ठीए, सिज्जायरि अण्णउत्थिणीए य । एसो उ विसयदुट्टो, सपक्ख परपक्ख चउभंगो ॥ यहां भी स्वपक्ष-परपक्ष की अपेक्षा चतुर्भंगी होती है१. स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट
२. स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट
३. परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट ४. परपक्ष परपक्ष में दुष्ट ।
संयत कल्पस्थिका अर्थात् तरुण संयती में आसक्त हैयह प्रथम भंग है। संयत भी शय्यातर की लड़की या परतीर्थिकी में आसक्त है, यह दूसरा भंग है। गृहस्थ तरुण संयती में आसक्त है, यह तीसरा भंग है और गृहस्थ गृहस्थस्त्री में आसक्त है, यह चतुर्थ भंग है। इस प्रकार विषयदुष्ट चार प्रकार का होता है।
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५००७. पढमे भंगे चरिमं अणुवरए वा वि वितियभंगम्मि । सेसेण ण इह पगतं वा चरिमे लिंगदाणं तु ॥ प्रथम भंग में अनुपरत व्यक्ति के चरम प्रायश्चित्तपारांचिक प्राप्त होता है। दूसरे भंग में भी पारांचिक प्रायश्चित्त है। शेष दो भंग यहां अधिकृत नहीं है अथवा विकल्प से चरम भंग द्वय में लिंगदान करना चाहिए। यदि उपशांत हो तो अन्य स्थान में लिंगदान करना चाहिए अन्यथा नहीं।
५००८. लिंगेण लिंगिणीए संपत्तिं जइ नियच्छती पावो ।
सव्वजिणाणऽज्जातो, संघो आसातिओ तेणं ॥ यदि लिंग अर्थात् रजोहरण आदि से युक्त संयमी संयती के साथ प्रतिसेवना आदि करता है तो वह पापी
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