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________________ ५१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् सारी जानकारी कर वहां पहुंचा जहां आचार्य के शरीर का ४९९३.तिव्वकसायपरिणतो, तिव्ययरागाणि पावइ भयाई। परिष्ठापन किया था। उसने उस मृत शरीर को निकाला और मयगस्स दंतभंजण, सममरणं ढोक्कणुग्गिरणा। गुरु के दांतों को तोड़ते हुए बोला-तुमने इन्हीं दांतों से तीव्र कषाय में परिणत जीव तीव्रतर भयों को प्राप्त होता सरसों की भाजी खाई थी। साधुओं ने यह देखा और सोचा- है। प्रथम दृष्टांत में लोभ परिणत मृत आचार्य का दन्तभंजन, इस दुष्ट ने प्रतिशोध लिया है। दूसरे दृष्टांत में तीव्र क्रोध परिणत आचार्य और शिष्य का ४९९०.मुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु णिसि गलग्गहणं। सम-मरण, तीसरे दृष्टांत में आंखों को उखाड़ कर प्रस्तुत सम्मूढेणियरेण वि, गलए गहितो मता दो वि॥ करना और चौथे दृष्टांत में दंडक को उठाना। पूर्वोक्त चतुभंगी एक साधु को अत्यंत उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त हुई। का यह पहला भंग है। उसने गुरु को दिखाई। गुरु ने उसको ले लिया। उसके मन ४९९४.रायवधादिपरिणतो, अहवा वि हवेज्ज रायवहओ तु। में गुरु के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। गुरु ने यह जाना और सो लिंगतो पारंची, जो वि य परिकहती तं तु॥ भक्तप्रत्याख्यान अनशन ले लिया। रात्री में एकान्त पाकर जो राजा, अमात्य आदि के वध में परिणत है अथवा जो शिष्य गुरु के निकट गया और गुरु के गले को जोर से राजवधक हो इस प्रकार परपक्षदुष्ट अनेकविध होते हैं। इन दबाया। संमूढ होकर दूसरे शिष्य ने उस दुष्ट का गला सबको लिंगतः पारांचिक करना चाहिए। जो आचार्य आदि पकड़कर जोर से दबाया। दोनों-गुरु और वह दुष्ट शिष्य- ऐसे राजवधक का सहयोगी होता है, उसे भी लिंग पारांचिक मृत्यु को प्राप्त हो गए। कर देना चाहिए। ४९९१.अत्थंगए वि सिव्वसि, ४९९५.सन्नी व असन्नी वा, जो दुट्ठो होति तू स पक्खम्मि। उलुगच्छी! उक्खणामि ते अच्छी। तस्स निसिद्धं लिंगं, अतिसेसी वा वि दिज्जाहि॥ पढमगमो नवरि इहं, जो संज्ञी अथवा असंज्ञी-स्वपक्ष में दुष्ट होता है, उसको उलुगच्छीउ त्ति ढोक्केति॥ लिंग देना निषिद्ध है। जो अतिशयज्ञानी आचार्य हैं वे उसे एक साधु सूर्यास्त के समय भी कपड़े सी रहा था। दूसरे लिंग दे सकते हैं। मुनि ने कहा-अरे उलूकाक्ष! सूर्य के अस्तगत हो जाने पर ४९९६.रन्नो जुवरन्नो वा, भी सी रहा है? वह कुपित होकर बोला-'तुम मुझे इस वधतो अहवा वि इस्सरादीणं। प्रकार कहते हो, मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।' शेष सो उ सदेसि ण कप्पइ, प्रथम आख्यान की भांति यहां भी मानना चाहिए। उस शिष्य कप्पति अण्णम्मि अण्णाओ॥ के अनशनपूर्वक मरने के पश्चात् इस दुष्ट शिष्य ने उसकी जो व्यक्ति राजा या युवराज का वधक है अथवा जो दोनों आंखें उखाड़ कर 'तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा था', यह ईश्वर-धनाढ्य व्यक्तियों का घातक है, उसे स्वदेश में दीक्षा कहते हुए दोनों आंखें निकाल ली। देना नहीं कल्पता, किन्तु अन्यदेश में अज्ञातरूप से दीक्षा ४९९२.सिहरिणिलंभाऽऽलोयण, देना कल्पता है। छंदिए सव्वाइते अ उग्गिरणा। ४९९७.इत्थ पुण अधीकारो, पढमिल्लुग-बितियभंगदुद्वेहिं। भत्तपरिण्णा अण्णहि, तेसिं लिंगविवेगो, दुचरिमे वा लिंगदाणं तु॥ __ण गच्छती सो इहं णवरिं॥ यहां प्रथम और द्वितीय भंगवर्ती दुष्ट का अधिकार है। एक बार एक शिष्य को भिक्षा में उत्कृष्ट सिखरिणी की (स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट तथा स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट) इन दो प्राप्ति हुई। गुरु के समक्ष उसकी आलोचना की, उसे दिखाई भंगों का अधिकार है। इनको लिंगविवेकरूप पारांचिक देना और गुरु को उसके लिए आमंत्रित किया। गुरु ने स्वयं चाहिए। दुचरिमे अर्थात् तीसरे और चौथे भंगद्वय में विकल्प समूची शिखरिणी का पान कर लिया। तब उस दुष्ट शिष्य ने से लिंगदान हो सकता है। (परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट और गुरु को मारने के लिए दंड उठाया। गुरु ने क्षमायाचना की, परपक्ष परपक्ष में दुष्ट-इन दो भंगों में वर्तमान पुरुष यदि परन्तु वह शिष्य उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने अपने गण में उपशांत हों तो लिंगदान करना चाहिए अन्यथा नहीं।) ही अनशन स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त किया। गुरु ४९९८.सव्वेहि वि घेत्तव्यं, गहणे य निमंतणे य जो तु विही। अन्य गण में नहीं गए। तदनन्तर उस दुष्ट शिष्य ने गुरु के भुंजती जतणाए, अजतण दोसा इमे होति॥ मृत शरीर को दंडे से खूब कूटा। सभी साधुओं को आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य अपने-अपने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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