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चौथा उद्देशक
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४९७८.अक्कोस-तज्जणादिसु,
संघमहिक्खिवति संघपडिणीतो। अण्णे वि अत्थि संघा,
सियाल-णंतिक्क -ढंकाणं॥ प्रवचन अर्थात् संघ की आशातना-जो आक्रोश तथा तर्जना से संघ पर आक्षेप करता है, वह संघ का प्रत्यनीक है। वह कहता है-सियार, णंतिक्क (?), ढंक आदि के भी संघ होते हैं। यह श्रमणसंघ भी वैसा ही है। ४९७९.काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमायमप्पमादा य। ___ मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जासु किं च पुणो॥
आगमों में षड्काय, व्रत, प्रमाद और अप्रमाद के स्थान वे ही हैं। उनका बार-बार उल्लेख है। यह उचित नहीं है। मोक्षाधिकारी मुनियों के लिए ज्योतिष विद्या से क्या प्रयोजन? आगमों में उसका प्रतिपादन है। यह श्रुत की आशातना है। ४९८०.इड्डि-रस-सातगुरुगा, परोवदेसुज्जया जहा मंखा।
अत्तट्ठपोसणरया, पोसेंति दिया व अप्पाणं॥ आचार्य ऋद्धि, रस, सात से गुरुक होते हैं। वे मंखों की भांति परोपदेश में उद्यत रहते हैं। वे अपने पोषण में रत रहते हैं। वे ब्राह्मणों की भांति अपना पोषण करते हैं। ४९८१.अब्भुज्जयं विहारं, देसिंति परेसि सयमुदासीणा।
उवजीवंति य रिद्धिं, निस्संगा मो त्ति य भणंति॥ गणधर अभ्युद्यत विहार की देशना देते हैं, किन्तु स्वयं इसमें उदासीन रहते हैं। वे ऋद्धियों का उपभोग करते हैं परंतु कहते हैं हम तो निःसंग हैं। ४९८२.गणधर एव महिड्डी, महातवस्सी व वादिमादी वा।
तित्थगरपढमसिस्सा, आदिग्गहणेण गहिता वा॥ गणधर ही सर्वलब्धिसंपन्न होने के कारण महर्द्धिक होते हैं। अथवा महातपस्वी तथा वादी, विद्यासिद्ध आदि मुनि महर्द्धिक माने जाते हैं। तीर्थंकरों के प्रथम शिष्य होते हैं गणधर। आदि ग्रहण से अन्य महर्द्धिक भी गृहीत होते हैं। ४९८३. पढम-बितिएसु चरिम, सेसे एक्केक्क चउगुरू होति।
सव्वे आसादिंतो, पावति पारंचियं ठाणं॥ पहले अर्थात् तीर्थंकर और दूसरे अर्थात् प्रवचन (संघ) इनकी आशातना करने वाले को पारांचित, शेष की देशतः आशातना करने वाले प्रत्येक को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा सर्वतः आशातना करने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ४९८४.तित्थयरपढमसिस्सं, एक्कं पाऽऽसादयंतु पारंची।
अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो सो जेण सुत्तस्स॥
तीर्थंकर के एक भी प्रथम शिष्य-गणधर की आशातना करने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। क्योंकि जिनेन्द्र तो केवल अर्थ की उत्पत्ति के कारक होते हैं और गणधर सूत्र के प्रणेता होते हैं। ४९८५.पडिसेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुव्वीए।
दुद्वे य पमत्ते या णेयव्वे अण्णमण्णे य॥ प्रतिसेवना पारांची क्रमशः तीन प्रकार का होता हैदुष्टपारांचिक, प्रमत्तपारांचिक और अन्योन्य करने वाला पारांचिक। ४९८६.दुविधो य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य।
दुविहो कसायदुट्ठो सपक्ख परपक्ख चउभंगो॥ दुष्टपारांचिक के दो प्रकार हैं-कषायदुष्ट और विषयदुष्ट। कषायदुष्ट दो प्रकार का है-स्वपक्षदुष्ट और परपक्षदुष्ट। यहां चतुर्भगी है
(१) स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट (२) स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट (३) परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट
(४) परपक्ष परपक्ष में दुष्ट। ४९८७.सासवणाले मुहणंतए य उलुगच्छि सिहरिणी चेव।
एसो सपक्खदुट्ठो, परपक्खे होति णेगविधो। सरसों की भाजी, मुखवस्त्रिका, उलूकाक्ष, शिखरिणी-ये चार दृष्टान्त स्वपक्ष कषाय दुष्ट के हैं। परपक्षकषायदुष्ट अनेक प्रकार का होता है। ४९८८.सासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजे एतरे कोवो।
खामणमणुवसमंते, गणिं ठवेत्तऽण्णहि परिण्णा॥ ४९८९.पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽण्णतो गंतु कत्थ से सरीरं।
गुरु पुव्व कहितऽदातण, पडियरणं दंतभंजणता॥ एक मुनि को गोचरी में सरसों की भाजी मिली। उसने आचार्य को उसके लिए निमंत्रित किया। गुरु ने सारी भाजी खाली। शिष्य इससे कुपित हो गया। गुरु ने क्षमायाचना की, पर वह उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने उस गण के लिए दूसरे आचार्य की स्थापना कर स्वयं अन्य गच्छ में जाकर भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर लिया। गुरु कालगत हो गए। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी साधुओं से गुरु के विषय में पूछताछ की। किसी ने कुछ नहीं बताया तब दूसरे स्रोतों से सारी जानकारी कर वह वहां गया जहां गुरु ने अनशन कर शरीर को त्यागा था। वहां जाकर उसने पूछा-उनका शरीर कहां है? गुरु ने प्राणत्याग से पूर्व ही कह दिया था कि उस दुष्ट शिष्य को मेरे विषय में कुछ मत बताना। अतः उसके पूछने पर भी उन्होंने कुछ नहीं बताया। उसने अन्य स्रोत से
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