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बृहत्कल्पभाष्यम् ५०५५.एक्को य दोन्नि दोन्नि य, मासा चउवीस होति छब्भागे।
देसं दोण्ह वि एयं, वहेज्ज मुंचेज्ज वा सव्वं॥ देश, देश-देश प्रायश्चित्त का स्वरूप-आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास का और उत्कृष्टतः बारह मास का होता है। छह महीनों का छठा भाग एक मास
और बारह महीनों का छठा भाग दो मास होता है। प्रतिसेवनापारांचिक जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष का होता है। यहां भी वर्ष का छठा भाग दो मास और बारह वर्षों का छठा भाग २४ मास होता है। दोनों प्रायश्चित्तों का यह 'देश' है। संघ इस प्रायश्चित्त को वहन करवाए या सारा विसर्जित कर दे।
५२२ ५०५०.समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय! तं कहमहं ति।
निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी॥ तब राजा ने पूछा-तुमने स्वयं को श्रमणप्रतिरूपिन् कैसे कहा? साधु बोला-राजन्! तुम पूछ रहे हो कि मैं श्रमण- प्रतिरूपिन् कैसे हूं? तो सुनो। श्रमण निरतिचार होते हैं। मैं वैसा नहीं हूं। अतः श्रमणप्रतिरूपिन् हूं। ५०५१.निज्जूढो मि नरीसर!,
खेत्ते वि जईण अच्छिउं न लभे। अतियारस्स विसोधिं,
पकरेमि पमायमूलस्स॥ हे नरेश्वर! मैं अभी संघ से निष्कासित हूं। मैं अभी श्रमणों के क्षेत्र में रह भी नहीं सकता। वहां मझे स्थान भी नहीं मिलता। मैं अभी प्रमाद के मूल अतिचार की विशोधी कर रहा हूं, उसका प्रायश्चित्त वहन कर रहा हूं। इसलिए मैं श्रमणप्रतिरूपिन् हूं। ५०५२.कहणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स।
वीसज्जियं ति य मए, हासुस्सलितो भणति राया। राजा जो पूछे उसका प्रसंगतः उत्तर देना यह श्रमण का कर्त्तव्य है। राजा ने जब श्रमण को राजभवन में आने का प्रयोजन पूछा तो श्रमण का कर्तव्य है कि वह अपना प्रयोजन बताए। श्रमण ने अपना प्रयोजन बताया। राजा प्रहृष्ट होकर बोला-मैंने श्रमणों पर जो प्रतिबंध लगाया था, उसको विसर्जित कर श्रमणों को प्रतिबंधों से मुक्त करता हूं। ५०५३.संघो न लभइ कज्ज, लद्धं कज्जं महाणुभाएणं। ___ तुब्भं ति विसज्जेमि, सो वि य संघो त्ति पूएति॥
संघ को प्रतिबंधों से मुक्ति नहीं मिल पाती, किन्तु महानुभाग-अत्यन्त अचिन्त्यप्रभाव से उस पारांचिक मुनि ने इस प्रयोजन को प्राप्त कर लिया। राजा ने कहा-श्रमण ! तुम्हारे कहने से मैं प्रतिबंधों को विसर्जित करता हूं। श्रमण ने कहा-मैं हूं ही क्या? संघ महान् है। राजा ने तब संघ को निमंत्रित कर उसकी पूजा की। ५०५४.अब्भत्थितो व रण्णा, सयं व संघो विसज्जति तु तुट्ठो।
आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुओ होइ॥ राजा ने संघ से अभ्यर्थना की कि इस पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले श्रमण को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। तब संघ राजा के कहने पर या स्वयं उस मुनि पर तुष्ट होकर उसे प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। पारांचिक मुनि का वह प्रायश्चित्त उस समय आदि-मध्य और अवसान वाला हो सकता है, वह सारा दोष संघ की कृपा से धुल (धुत हो) जाता है।
बावत्तरं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु॥ देशदेश-आशातनापारांचिक के छह महीनों के दसवें भाग अर्थात् १८ दिन और वर्ष के दसवें भाग अर्थात् ३६ दिन होते हैं। प्रतिसेवनापारांचिक संवत्सर के दसवें भाग अर्थात् ३६ दिन, १२ वर्षों का दसवां भाग अर्थात् एक वर्ष और ७२ दिन होते हैं। इस काल पर्यन्त जो वहन करता है वह है देश-देश पारांचिक। ५०५७.पारंचीणं दोण्ह वि, जहन्नमुक्कोसयस्स कालस्स।
छब्भागं दसभागं, वहेज्ज सव्वं व झोसिज्जा। दोनों पारांचिकों-आशातना और प्रतिसेवनापारांचिक का जघन्य और उत्कृष्ट काल का षड्भाग या दसवां भाग का वहन करे। अथवा संघ कृपा करके सारा विसर्जित कर दे, मुक्त कर दे।
ततो अणवट्टप्पा पण्णत्ता, तं जहा-साहम्मियाणं तेणियं करेमाणे, अण्णधम्मियाणं तेणियं करेमाणे, हत्थादालं दलेमाणे॥
(सूत्र ३)
५०५८.पच्छित्तमणंतरियं, हेट्ठा पारंचियस्स अणवट्ठो।
आयरियस्स विसोधी, भणिता इमगा उवज्झाते॥ पारांचिक प्रायश्चित्त के अनन्तर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। उसका कथन किया जाता है। अथवा पूर्वसूत्र में आचार्य की शोधि कही गई है। यह उपाध्याय विषयक शोधि है। ५०५९.आसायण पडिसेवी, अणवठ्ठप्पो वि होति दुविहो तु।
एक्केको वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो॥ अनवस्थाप्य के दो प्रकार हैं-आशातना अनवस्थाप्य और
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