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________________ चौथा उद्देशक ५२३ प्रतिसेवी अनवस्थाप्य। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं सचारित्र शैक्ष कहा गया है। उपधि अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि। परिगृहीत और अचारित्र। या अपरिगृहीत भी हो सकता है। प्रत्येक तीन-तीन प्रकार ५०६०.तित्थयर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए। का है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। एते आसादेंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ ५०६६.अंतो बहिं निवेसण, वाडग गामुज्जाण सीमऽतिक्कते। तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च। इनकी आशातना करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा निम्न उपाश्रय के भीतर शैक्ष यदि साधर्मिक उपकरण का प्रकार से होती है। अदृष्ट स्तैन्य करता है तो मासलघु, उपाश्रय के बाहर ५०६१.पढम-बितिएसु णवमं, सेसे एक्कक्क चउगुरू होति। करता है तो मासगुरु। निवेसन के भीतर मासगुरू, बहिर सव्वे आसादेतो, अणवठ्ठप्पो उ सो होइ॥ चतुर्लघु। वाटक के भीतर चतुर्लघु, बाहर चतुर्गुरु। ग्राम के प्रथम और द्वितीय अर्थात् तीर्थंकर और प्रवचन-संघ की अन्दर चतुर्गुरु, बाहर षड्लघु। उद्यान के भीतर षड्लघु, आशातना करने पर उपाध्याय को नवम् अर्थात् अनवस्थाप्य बाहर षड्गुरु। सीमा के भीतर षड्गुरु, सीमा का अतिक्रान्त प्रायश्चित्त आता है। शेष अर्थात् श्रुत आदि की आशातना हो जाने पर छेद। मूल और द्विक-अनवस्थाप्य और पारांचिक करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। सबकी आशातना का कथन आगे......। करने पर वह अनवस्थाप्य होता है। ५०६७.एवं ता अघिद्वे, दिढे पढमं पदं परिहवेत्ता। ५०६२.पडिसेवणअणवट्ठो, तिविधो सो होइ आणुपुव्वीए। ते चेव असेहे वी, अदिट्ठ दिवे पुणो एक्कं ।। साहम्मि अण्णधम्मिय, हत्थादालं व दलमाणे॥ यह सारा अदृष्ट स्तैन्य करने पर शैक्ष के लिए प्रतिसेवना अनवस्थाप्य क्रमशः तीन प्रकार का होता है- प्रायश्चित्त कहा है। दृष्ट स्तैन्य में प्रथम पद अर्थात् मासलघु साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्य धार्मिकस्तैन्यकारी और हस्त- को छोड़कर मासगुरु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त वक्तव्य है। ताल देने वाला। अशैक्ष अर्थात् उपाध्याय के भी अदृष्ट स्तैन्य के भी वे ही ५०६३.साहम्मि तेण्ण उवधी, वावारण झामणा य पट्ठवणा। प्रायश्चित्त हैं। दृष्ट स्तैन्य में एक पद मासगुरु को छोड़कर सेहे आहारविधी, जा जहिं आरोवणा भणिता॥ चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। आचार्य साधर्मिकों की उपधि को चुरा लेना यह साधर्मिकस्तैन्य के भी अदृष्ट में अनवस्थाप्य पर्यन्त और दृष्ट में चतुर्गुरु से है। गुरु साधु को उपधि लाने के लिए भेजते हैं। उपधि पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त का विधान है। प्राप्तकर गुरु को बिना कहे ही स्वयं उसको ले लेना, उपधि ५०६८.वावारिय आणेहा, बाहिं घेत्तूण उवहि गिण्हंति। दग्ध हो गई, उसे गुरु को बिना पूछे नई उपधि का भोग लहुगो अदिति लहुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ करना, गुरु ने किसी को देने के लिए वस्त्र, पात्र आदि भेजा, गुरु ने शिष्यों को उपधि लाने के लिए भेजा। उन्होंने उस व्यक्ति को वह न देकर बीच में स्वयं ले लेना, शैक्ष गृहस्थों से वस्त्र आदि प्राप्त कर लिए। उपधि को आचार्य के विषयक स्तैन्य करना, आहारविधि में अतिक्रमण करना-ये पास न लाकर बाहर ही उसका विभाजन कर ग्रहण कर साधर्मिक स्तैन्य के रूप हैं। इनके लिए आरोपणा प्रायश्चित्त लिया। इसमें मासलघु का प्रायश्चित्त है। आने पर भी वस्त्र कहा गया है। गुरु को नहीं देते। उसमें चतुर्लघु। वे स्वच्छंदग्राहक साधु ५०६४.उवहिस्स आसिआवण, सेहमसेधे य दिट्ठऽदिढे य। अनवस्थाप्य होते हैं। यह सूत्र का आदेश है। सेहे मूलं भणितं, अणवठ्ठप्पो य पारंची॥ ५०६९.दट्ट निमंतण लुद्धोऽणापुच्छा तत्थ गंतु णं भणति। उपधि का आसियावण अर्थात् स्तैन्य शैक्ष या अशैक्ष, झामिय उवधी अह तेहि पेसितो गहित णातो य॥ देखते हुए या न देखते हुए करे, उसमें शैक्ष को मूल पर्यन्त एक श्रावक ने आचार्य को वस्त्र ग्रहण करने के लिए प्रायश्चित्त आता है, उपाध्याय को अनवस्थाप्य पर्यन्त और । निमंत्रित किया। आचार्य ने उन वस्त्रों को ग्रहण करने की आचार्य को पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मनाही कर दी। एक साधु उन वस्त्रों के प्रति लुब्ध हो गया। ५०६५.सेहो त्ति अगीयत्थो, जो वा गीतो अणिड्डिसंपन्नो। वह आचार्य को बिना पूछे ही उस श्रावक के घर गया और उवही पुण वत्थादी, सपरिग्गह एतरो तिविहो॥ बोला-हमारे वस्त्र दग्ध हो गए हैं। मुझे आचार्य ने तुम्हारे शैक्ष पद से यहां अगीतार्थ मुनि अथवा गीतार्थ होने पर पास वस्त्र लाने भेजा है। उसने साधु को वस्त्र दिए। इतने में भी जो आचार्यपद आदि की समृद्धि को अप्राप्त है उसे भी ही दूसरे साधु आ गए। उस गृहस्थ ने कहा-आपके वस्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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