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________________ ५२४ = बृहत्कल्पभाष्यम् दग्ध हो गए हैं। एक साधु को मैंने वस्त्र दिए हैं। आपको संज्ञाभूमी में गए हुए किसी साधु ने या किसी पथिक चाहिए तो आप भी ले जाएं। वस्त्र आदि के दग्ध होने की साधु ने किसी शैक्ष को देखा। उसने साधु को वंदना की। बात झूठी है। उस श्रावक ने जान लिया कि गुरु को बिना साधु ने पूछा-तुम कौन हो? मैं शैक्ष हूं। मैं अमुक साधु के पूछे ही उसने मेरे से वस्त्र लिया है। साथ प्रस्थित हूं। साधु ने पूछा-वह अब कहां गया है? शैक्ष ५०७०.लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा।। बोला-वह मेरे कार्य के लिए अर्थात् मैं बुभुक्षित और मूलं च तेणसहे, वोच्छेद पसज्जणा सेसे॥ पिपासित हूं, मेरे लिए भक्त-पान लाने के लिए घूम रहा है। फिर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानता है, तो उस मुनि उस साधु ने शैक्ष से कहा मेरे पास अन्न-पान है। उसको को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि श्रावक को खाओ। यदि अनुकंपा से भोजन देता है तो वह शुद्ध है। यदि अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, यदि 'चोर शब्द' शैक्ष के द्वारा पूछने पर या न पूछने पर अनुकंपा से धर्मकथा प्रचारित होता है तो मूल और शेष साधुओं के लिए अन्य करता है तो शुद्ध है। अन्यथा उसका अपहरण करने के लिए द्रव्यों का व्यवच्छेद प्रसंगवश होता है तो अन्य प्रायश्चित्त धर्मकथा करता है या भक्तपान देता है तो वह दोष है। उसका प्राप्त होता है। गुरुक प्रायश्चित्त है। ५०७१.सुव्वत्त झामिओवधि, पेसण गहिते य अंतरा लुद्धो। ५०७६.भत्ते पण्णवण निगृहणा य वावार झंपणा चेव। लहुगो अदेंते गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ पत्थवण-सयंहरणे, सेहे अव्वत्त वत्ते य॥ यथार्थ में ही उपधि दग्ध हो गई हो, गुरु ने शिष्य को उस शैक्ष का अपहरण करने के लिए वह साधु उसे वस्त्र लाने भेजा, वस्त्रग्रहण किया और उन वस्त्रों में प्रलुब्ध भक्त-पान देता है, या धर्मकथा करता है तब शैक्ष कहता हो गया। स्वयं उनको ग्रहण कर लेता है तो लघुमास का, है-मैं तुम्हारे पास ही दीक्षा लूंगा, परंतु पहले वाले साधु के यदि गुरु को नहीं देता है तो चतुर्गुरु तथा सूत्र के आदेश से समक्ष मैं ठहर नहीं सकता। अतः मुझे कहीं छुपा लो। तब वह अनवस्थाप्य होता है। वह मुनि उसे व्यापृत करता है कि तुम उस स्थान में छुप ५०७२.उक्कोस सनिज्जोगो, पडिग्गहो अंतरा गहण लुतो।। जाओ। जब वह वहां जाता है तब उसे पलाल आदि से ढंक लहुगा अदेंते गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ देता है। अथवा उसको दूसरे के साथ अन्य स्थान में ___ एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा यह उत्कृष्ट पात्र प्रस्थापित कर देता है या स्वयं उसका हरण कर अन्यत्र तुम अमुक आचार्य को दे देना। यह पात्र सनिर्योग-पात्रकबंध चला जाता है। व्यक्त अथवा अव्यक्त शैक्ष से संबंधित ये षट् आदि से युक्त है। वह शिष्य उस पात्र को लेकर चला। उसमें पद होते हैं-भक्तप्रदान, धर्मकथा, निगूहनावचन, व्याप्त लुब्ध होकर वह उसे ग्रहण करना चाहता था। उसे चतुर्लघु करना, झंपना-ढंकना, प्रस्थापन-स्वयंहरण। इन छह स्थानों और उन आचार्य को वह उस पात्र को नहीं देता है तो का यह प्रायश्चित्त है। चतुर्गुरु और सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। ५०७७.गुरुओ चउलहु चउगुरु, ५०७३.पव्वावणिज्ज बाहिं, ठवेत्तु भिक्खस्स अतिगते संते। छल्लहु छग्गुरुगमेव छेदो य। सेहस्स आसिआवण, अभिधारेते व पावयणी॥ भिक्खु-गणा-ऽऽयरियाणं, कोई साधु प्रव्राजनीय शैक्ष को लेकर चला। उसको गांव मूलं अणवट्ठ पारंची॥ के बाहर बिठाकर स्वयं भिक्षा के लिए गया। उसके चले अव्यक्त शैक्ष अर्थात् जिसके अभी तक दाढ़ी-मूंछ नहीं है, जाने पर एक दूसरे मुनि ने उस शैक्ष का 'असियावण'- उससे संबंधित इन छह स्थानों का यह प्रायश्चित्त है। अपहरण कर डाला। वह शैक्ष किसी साधु को मन में धारण भक्तपान देना मासगुरु, धर्मकथा करना चतुर्गुरु, निगूहनवचन कर जा रहा है। उसको दूसरा मुनि ठगकर प्रवजित कर देता चतुर्गुरु, व्याप्त करना षड्लघु, झम्पन करना षड्गुरु, है। जब ये दोनों प्रावचनिक होते हैं तब दोनों अपना दिक्- प्रस्थापन-स्वयंहरण करना छेद। व्यक्त शैक्ष-दाढ़ी-मूंछ वाले परिच्छेद कर देते हैं। शैक्ष के प्रायश्चित्त है चतुर्लघु से मूल पर्यन्त। गणी अर्थात् ५०७४.सण्णातिगतो अद्धाणितो व वंदणग पुच्छ सेहो मि। उपाध्याय के चतुर्लघु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के सो कत्थ मज्झ कज्जे, छात-पिवासस्स वा अडति॥ चतुर्गुरु से पारांचिक पर्यन्त। ५०७५.मज्झमिणमण्ण-पाणं, उवजीवऽणुकंपणाय सुद्धो उ। ५०७८.अभिधारंत वयंतो, पुट्ठो वच्चामऽहं अमुगमूलं। पुट्ठमपुढे कहणा, एमेव य इहरहा दोसो॥ पण्णवण भत्तदाणे, तहेव सेसा पदा णत्थि। प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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