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चौथा उद्देशक
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उपरोक्त सारा कथन ससहाय शैक्ष के लिए कहा है, किन्तु जो असहाय शैक्ष है, उसके लिए निम्नोक्त कथन है- कोई शैक्ष अकेला किसी आचार्य के पास दीक्षित होने की भावना को धारण कर जाता है। बीच में किसी साधु ने पूछाकहां जा रहे हो? वह कहता है मैं अमुक आचार्य के पास प्रव्रजित होने जा रहा हूं। वह मुनि यदि उस अव्यक्त शैक्ष को भक्तपान देने या धर्मकथा करता है तो प्रायश्चित्त आता है (भक्तपान-मासलघु, धर्मकथा-चतुर्लघु)। उपाध्याय और आचार्य के षड्लघु और षड्गुरु प्रायश्चित्त है। शैक्ष असहाय होने के कारण शेष पद-निगूहन आदि नहीं होते। ५०७९.आणादऽणंतसंसारियत्त बोहीय दुल्लभत्तं च।
साहम्मियतेण्णम्मि, पमत्तछलणाऽधिकरणं च॥ शैक्ष का अपहरण करने पर ये दोष और होते हैं१. आज्ञाभंग आदि दोष २. अनन्तसंसारिकत्व ३. बोधि की दुर्लभता ४. साधर्मिकस्तैन्य में प्रमत्तता ५. प्रमत्त की प्रान्तदेवता द्वारा छलना ६. अधिकरण-कलह।
ये सारे पुरुष विषयक दोष हैं। ५०८०.एमेव य इत्थीए, अभिधारेंतीए तह वयंतीए।
वत्तऽव्वत्ताए गमो, जहेव पुरिसस्स नायव्वो॥ प्रव्रज्या लेने की इच्छुक कोई बहिन आचार्य का अभिधारण कर जा रही है। वह व्यक्त है या अव्यक्त, उसके लिए पुरुष की भांति ही विकल्प हैं। ५०८१.एवं तु सो अवधितो, जाधे जातो सयं तु पावयणी।
निक्कारणे य गहितो, वच्चति ताहे पुरिल्लाणं॥ इस प्रकार वह शैक्ष अपहृत हो गया और जब स्वयं ही प्रावचनिक हो गया अथवा दूसरा कोई निष्कारण ही उसे गृहीत कर लिया, तब वह अपने आप ही दिक्परिच्छेद कर पुनः बोधिलाभ के लिए पूर्व आचार्य के पास ही जाता है। ५०८२.अन्नस्स व असतीए, गुरुम्मि अब्भुज्जएगतरजुत्ते।
धारेति तमेव गणं, जो य हडो कारणज्जाते॥ जिसने निष्कारण ही उस शैक्ष का अपहरण किया था, उसके गण में कोई अन्य आचार्य पद योग्य नहीं है और गुरु ने अभ्युद्यतविहार या अभ्युद्यतमरण को स्वीकार कर लिया है तो वही उस गण को धारण करता है जो कारणवश अपहृत हुआ है। ५०८३.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुजोगे च।
अज्जाकारणजाते, कप्पति सेहावहारो तु॥
पूर्वगत में तथा कालिकानुयोग में कुछ अंशों का व्यवच्छेद जानकर तथा उस गण में कोई आर्याओं का परिवर्तक नहीं, यह कारण जानकर किसी शैक्ष का अपहरण करना कल्पता है। ५०८४.कारणजाय अवहितो, गणं धरतो तु अवहरंतस्स।
जाहेगो निप्फण्णो, पच्छा से अप्पणो इच्छा। कारण जात में अपहृत शैक्ष जिस गण को धारण करता है, उसी गण का आभाव्य होता है। जब कारण पूरा हो जाता है तब वह शैक्ष पहले वाले का ही आभाव्य होता है, अपहरण करने वाले का नहीं। जब उस गण में एक भी मुनि गीतार्थरूप में निष्पन्न हो जाता है, उसके पश्चात् उसकी इच्छा है कि वह वहां रहे या पूर्व स्थान में चला जाए। ५०८५.ठवणाघरम्मि लहुगो, मादी गुरुगो अणुग्रहे लहुगा।
अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे।। दानश्राद्ध आदि के कुल को स्थापनागृह कहा जाता है। जो मुनि आचार्य की आज्ञा के बिना वहां गोचरी के लिए जाता है तो उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। जो मायापूर्वक वहां जाता है, उसे मासगुरुक का प्रायश्चित्त है। यदि श्राद्ध लोग अनुग्रह मानते हैं तो चतुर्लघु, यदि अप्रीतिक करते हैं तो चतुर्गुरु और तद् द्रव्य का व्यवच्छेद तथा शेष दोषों के प्रसंग से उस-उस दोष का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ५०८६.अज्ज अहं संदिट्ठो पुट्ठोऽपुट्ठो व साहती एवं।
पाहुणग-गिलाणट्ठा, तं च पलोट्टेति तो बितियं ।। गुरु की आज्ञा के बिना स्थापनाकुल में प्रवेश कर मुनि से पूछने पर या बिना पूछे ही वहां कहता है-मुझे आचार्य ने यहां भेजा है। उसको मासलघु। घर के श्राद्ध कहते हैं- सन्दिष्ट संघाटक आया था, हमने उसको दे दिया। तब वह कहता है-मैं प्राघूर्णक तथा ग्लान के लिए आया हूं। इस प्रकार यदि श्राद्ध लोगों को भ्रम में डालता है तो द्वितीय मासगुरु। ५०८७.आयरि-गिलाण गुरुगा,
लहुगा य हवंति खमग-पाहुणए। गुरुगो य बाल-वुड्ढे,
सेसे सव्वेसु मासलहुँ॥ जो श्राद्ध विपरिणत होकर यदि आचार्य और ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य नहीं देते तो उस मुनि को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त और जो क्षपक और प्राघूर्णक के प्रायोग्य नहीं देते तो उनको चतुर्लघु, बाल-वृद्धों के योग्य न देने पर गुरुमास और शेष सभी मुनियों के प्रायोग्य न मिलने पर उस मुनि को मासलघु का प्रायश्चित्त आता है।
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